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________________ स्थान १ उद्देशक १ २७ 100000 कृष्ण पाक्षिक और शुक्ल पाक्षिक जीव चाहे किसी भी दण्डक में हो उनकी वर्गणा एक-एक होती है। प्रश्न- किस कारण से जीव कृष्ण पाक्षिक और शुक्ल पाक्षिक बनते हैं ? उत्तर - कृष्ण पाक्षिक और शुक्ल पाक्षिक बनने में कोई कर्म कारण नहीं है। सिर्फ कालमर्यादा कारण है । जीव अनादि काल से कृष्ण पाक्षिक है । परन्तु जब उसका संसार परिभ्रमण अर्द्धपुद्गल परावर्तन से कुछ कम रह जाता है, तब वह शुक्ल पाक्षिक कहलाता है। इसमें शुभ या अशुभ किसी प्रकार का कर्म कारण नहीं है। जो जीव एक बार शुक्ल पाक्षिक बन गया वह वापिस कृष्ण पाक्षिक नहीं बनता है। शुक्ल पाक्षिक बना हुआ जीव अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में अवश्य मोक्ष चला जाता है । लेश्या - "लिश्यते श्लिश्यते आत्मा कर्मणा सह अनया सा लेश्या" अर्थात् जिससे आत्मा कर्मों से लिप्त होती है उसको लेश्या कहते हैं । लेश्या शब्द का अर्थ इस प्रकार कहा है कृष्णादि द्रव्य साचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्या शब्दः प्रवर्त्तते ।। अर्थात् - स्फटिक मणि सफेद होती है, उसमें जिस रंग का डोरा पिरोया जाय वह उसी रंग की दिखाई देती है। इसी प्रकार शुद्ध आत्मा के साथ जिससे कर्मों का संबंध हो उसे लेश्या कहते हैं । द्रव्य और भाव की अपेक्षा लेश्या दो प्रकार की है। द्रव्य लेश्या कर्म वर्गणा रूप तथा कर्मनिष्यन्द रूप एवं योग परिणाम रूप है । तत्त्वार्थ सूत्र में बतलाया गया है कि - " कषायानुरञ्जित योग परिणामो लेश्या " आत्मा में रहे हुए क्रोधादि कषाय को लेश्या बढ़ाती है। योगान्तर्गत पुद्गलों में कषाय को बढ़ाने की शक्ति रहती है। जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध की वृद्धि होती है। द्रव्य लेश्या के छह भेद हैं। इन लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के ३४ वें अध्ययन एवं पण्णवणा सूत्र के १७ वें पद में दिया गया है। मनुष्य और तिर्यञ्च में द्रव्य लेश्या का परिवर्तन होता रहता है। देवता और नैरयिक में द्रव्य लेश्या अवस्थित रहती है। . योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्य लेश्या के संयोग से होने वाला आत्मा का परिणाम विशेष भाव लेश्या कहलाती है। इसके दो भेद हैं ९. विशुद्ध भाव लेश्या और २. अविशुद्ध भाव लेश्या । अकलुषित द्रव्य लेश्या के सम्बन्ध होने पर कषाय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाला आत्मा का शुभ परिणाम अविशुद्ध भाव लेश्या है। इसके छह भेद हैं। इनमें से कृष्ण, नील और कापोत अविशुद्ध भाव लेश्या है और तेजो, पद्म और शुक्ल यह विशुद्ध भाव लेश्या है । Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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