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________________ स्थान ४ उद्देशक ४ 10000000000 ********00 पापी के समान माना जाता है । कोई एक पुरुष स्वयं पापी है किन्तु लोगों द्वारा वह श्रेष्ठ के समान माना जाता है । कोई एक पुरुष स्वयं पाषी है किन्तु लोगों के द्वारा वह श्रेष्ठ के समान माना जाता है । कोई एक पुरुष स्वयं पापी है और लोगों के द्वारा भी वह पापी ही माना जाता है । । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक साधु सिद्धान्त का प्ररूपक है किन्तु क्रिया शुद्ध नहीं होने से जिनशासन का प्रभावक नहीं है। कोई एक जिनशासन का प्रभावक है किन्तु सिद्धान्त का प्ररूपक नहीं है । कोई एक सिद्धान्त का प्ररूपक भी है और प्रभावक भी है कोई एक न तो सिद्धान्त का प्ररूपक है और न प्रभावक है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा कोई एक पुरुष सिद्धान्त का प्ररूपक है किन्तु एषणा आदि समिति का गवेषक नहीं है । कोई एक एषणा आदि समिति का गवेषक है किन्तु सिद्धान्त का प्ररूपक नहीं है । कोई एक पुरुष सिद्धान्त का प्ररूपक भी है और एषणा आदि समिति का गवेषक भी है ! कोई एक पुरुष न तो सिद्धान्त का प्ररूपक है और न एषणा आदि समिति का गवेषक है । प्रवाल यानी नये अङ्कुर रूप से, पत्ते रूप से, विवेचन - चार प्रकार की व्याधि (रोग) कही गयी है - १. वात की व्याधि-वायु से उत्पन्न रोग २. पित्त की व्याधि ३. कफ की व्याधि और ४. सन्निपातज व्याधि । रोग को समूल नष्ट करना अथवा उपशान्त करना चिकित्सा है। चिकित्सा के चार अंग है १. वैद्य २. औषध ३. रोगी और ४. परिचारक । द्रव्य रोग की तरह मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और अशुभयोग ये भाव रोग हैं। इनसे कर्म रूपी बीमारी उत्पन्न होती है और बढ़ती है । ज्ञानियों ने मोह रूप भाव बीमारी को दूर करने के उपाय इस प्रकार बताये हैं - चार प्रकार की वृक्ष विकुर्वणा कही गई है यथा फूल रूप से और फलरूप से । - Jain Education International ४०७ - निव्विगइ निब्बलोमे तव उद्धद्वाणमेव उब्भामे । वेयावच्चाहिंडण, मंडलि कप्पट्ठियाहरणं ॥ १. निर्विकृति - विगय का त्याग करे २. चने आदि का अरस निरस निर्बल आहार करे ३- आयंबिल आदि तप करे ४. ऊणोदरी करे ५. कायोत्सर्ग करे ६. भिक्षाचर्या करे ७. वैयावृत्य करे ८. नवकल्पी विहार करे ९. सूत्रार्थ की मंडली में प्रवेश करे-शास्त्रों का अध्ययन, अध्यापन करे, यह मोह रोग की चिकित्सा है। वादियों के समोसरण चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता तंजहा - किरियावाई, अकिरियावाई, . अण्णाणियावाई, वेणइयावाई । णेरड्या णं चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता तंजहा - किरियावाई जाव वेणइयावाई । एवमसुरकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं एवं विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं ॥ १८६ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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