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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कोई एक पुरुष न तो व्रण करता है और न उसे भरता है । इसी प्रकार अतिचार सम्बन्धी चौभङ्गी होती है। यथा- कोई एक साधु अतिचार का सेवन करता है किन्तु प्रायश्चित्त लेकर उसकी शुद्धि नहीं करता. है। कोई एक साधु पूर्वकृत अतिचारों की शुद्धि करता है और नवीन अतिचारों का सेवन नहीं करता है। कोई अतिचारों का सेवन भी करता है और प्रायश्चित्त द्वारा उसकी शुद्धि भी करता है । कोई एक न तो अतिचारों का सेवन करता है और न उनकी शुद्धि करता है । चार प्रकार के व्रण यानी घाव कहे गये हैं यथा - किसी एक व्रण में अन्दर शल्य होता है किन्तु बाहर शल्य नहीं होता है । किसी एक व्रण में . बाहर शल्य होता है किन्तु अन्दर शल्य नहीं होता है । किसी व्रण में अन्दर भी शल्प होता है और बाहर भी शल्य होता है । किसी में न तो अन्दर शल्य होता है और न बाहर शल्य होता है । इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक साधु गुरु के सामने आलोचना न करने से अन्दर शल्य वाला होता है किन्तु बाहर शल्य वाला नहीं है । इस तरह चौभङ्गी कह देनी चाहिए । चार प्रकार के घाव कहे गये हैं यथा - कोई एक घाव अन्तर्दुष्ट यानी अन्दर बहुत दुःख देने वाला होता है किन्तु बाहर दुःख देने वाला नहीं होता है। कोई एक घाव बाहर दुःख देने वाला होता है किन्तु अन्दर दुःख देने वाला नहीं होता है । कोई एक अन्दर भी दुःख देने वाला होता है और बाहर भी दुःख देने वाला होता है । कोई एक न तो अन्दर दुःख देने वाला होता है और न बाहर दुःख देने वाला होता है । इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष अन्दर दुष्ट होता है,किन्तु बाहर दुष्ट नहीं होता है । इस तरह चौभङ्गी कह देनी चाहिए।
- चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष द्रव्य से श्रेष्ठ होता है और भाव से भी श्रेष्ठ होता है । कोई एक पुरुष द्रव्य से श्रेष्ठ होता है किन्तु भाव से पापी होता है । कोई एक पुरुष : द्रव्य से पापी होता है किन्तु भाव से श्रेष्ठ होता है । कोई एक पुरुष द्रव्य से पापी होता है और भाव से
भी पापी होता है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष स्वयं भाव से श्रेष्ठ है और द्रव्य से भी दूसरे श्रेष्ठ पुरुष के समान है । कोई एक पुरुष भाव से स्वयं श्रेष्ठ है किन्तु द्रव्य से पापी के समान प्रतीत होता है । कोई एक पुरुष स्वयं भाव से पापी है किन्तु द्रव्य से श्रेष्ठ के समान प्रतीत होता है । कोई एक पुरुष स्वयं भाव से पापी है और द्रव्य से भी पापी के समान प्रतीत होता है । अथवा कोई एक पुरुष गृहस्थवास में श्रेष्ठ था और दीक्षा लेने के बाद भी श्रेष्ठ रहा । कोई पहले श्रेष्ठ था किन्तु पीछे पापी बन गया । कोई पहले पापी था किन्तु पीछे श्रेष्ठ बन गया । कोई पहले भी पापी था और पीछे भी पापी ही बना रहा । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष स्वयं श्रेष्ठ है और लोग भी उसे श्रेष्ठ मानते हैं । कोई एक पुरुष स्वयं श्रेष्ठ है किन्तु लोग उसे पापी मानते हैं । कोई एक पुरुष स्वयं पापी है किन्तु लोग उसे श्रेष्ठ मानते हैं । कोई एक पुरुष स्वयं पापी है और लोग भी उसे पापी मानते हैं । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष स्वयं श्रेष्ठ है और लोगों के द्वारा भी वह श्रेष्ठ के समान माना जाता है । कोई एक पुरुष स्वयं श्रेष्ठ है किन्तु लोगों द्वारा वह
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