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ऐसा हेतु देना जिससे प्रतिवादी सरलता से समझ न सके और समय व्यतीत हो जाय । स्थापक हेतु यानी अपने मन को स्थापित करने के लिए जो हेतु दिया जाय । व्यंसक यानी ऐसा हेतु देना जिसको सुन कर लोग चक्कर में पड़ जाय, यथा शकटत्तितरी । लूषक यानी धूर्त्त पुरुष के द्वारा दिये गये हेतु का खण्डन करने के लिए वैसा ही हेतु देना । अथवा हेतु चार प्रकार का कहा गया है यथा प्रत्यक्ष अनुमान, औपम्य यानी उपमान और आगम । अथवा हेतु चार प्रकार का कहा गया है यथा अस्तित्वास्तित्व हेतु जैसे कि यहाँ पर धूंआ है इसलिए अग्नि भी है । अस्तित्व नास्तित्व हेतु, जैसे कि यहाँ अग्नि है इसलिए यहाँ शीतलता नहीं है । नास्तित्व अस्तित्व हेतु, जैसे कि वहाँ अग्नि नहीं है इसलिए वहाँ शीतलता है । नास्तित्वनास्तित्व हेतु, जैसे कि यहाँ शीशम का वृक्ष नहीं है इसलिए यहाँ वृक्षपना भी नहीं है अथवा यहाँ अग्नि नहीं है इसलिए धूंआ भी नहीं है । इसमें स्वभाव, व्याप्य, कार्य कारण आदि सब हेतुओं का समावेश हो जाता है ।
विवेचन - टीका में इन सब का विस्तृत अर्थ और उदाहरण दिये हैं । विस्तार देखने की रुचि वालों को वहाँ देखना चाहिए ।
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स्थान ४ उद्देशक ४
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संख्यान, अंधकार व प्रकाश के कारण
चउव्विहे संखाणे पण्णत्ते तंजहा - पडिकम्मं, ववहारे, रज्जू, रासी । अहोलोए णं चत्तारि अंधगारं करेंति तंजहा णरगा, णेरड्या, पावाइं कम्माई, असुभा पोग्गला । तिरिय लोए णं चत्तारि उज्जोअं करेंति तंजहा - चंदा, सूरा, मणि, जोई । उड्ढलोए णं चत्तारि उज्जो करेंति तंजहा- देवा, देवीओ, विमाणा, आभरणा ॥ १८३ ॥
।। चउट्ठाणस्स तइओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - संखाणे - संख्या, पडिकम्मे गणित, अंधगारं - अंधकार, उज्जोअं- उद्योत, जोई
परिकर्म, ववहारो व्यवहार, रज्जू - रज्जु ज्योति, आभरणा - आभरण ।
भावार्थ - चार प्रकार की संख्या कही गई है यथा- परिकर्म यानी जोड़ आदि, मिश्रक व्यवहार आदि, रज्जु गणित यानी क्षेत्र गणित और राशि अर्थात् त्रैराशिक पञ्चराशिक आदि । अधोलोक में चार पदार्थ अन्धकार करते हैं यथा नरक, नारकी जीव, पापकर्म और अशुभ पुद्गल । तिर्च्छालोक में चार पदार्थ उदयोत करते हैं यथा चन्द्र, सूर्य, मणि और ज्योति यानी अग्नि । ऊर्ध्वलोक में चार पदार्थ उदयोत करते हैं यथा-देव, देवियाँ, विमान और आभरण (आभूषण) । 'विवेचन- 'संख्यायते गण्यतेऽनेनेति संख्यानं गणितमित्यर्थः उसे संख्या गणित कहा जाता है चार प्रकार की संख्या कही है।
१. परिकर्म- जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि पद्धतियों को परिकर्म कहते हैं। २. व्यवहार- दर्जन, नाप, तोल आदि से वस्तुओं का हिसाब लगाना ।
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जिसके द्वारा गणना की जाए
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