SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान ४ उद्देशक ३ . ३९३ ग्रहण करता है किन्तु शृगाल की तरह पालन करता हुआ विचरता है, जैसे कण्डरीक मुनि। कोई एक पुरुष शृगाल की तरह दीक्षा ग्रहण करता है किन्तु सिंह की तरह पालन करता हुआ विचरता है, जैसे मेतार्यमुनि। कोई एक पुरुष शृंगाल की तरह दीक्षा ग्रहण करता है और शृंगाल की तरह ही पालन करता हुआ विचरता है, जैसे सोमाचार्य। - विवेचन - इहत्थे णाममेगे.....चौभंगी में इहत्य शब्द की दो संस्कृत छाया की गई है, संस्कृत टीका इस प्रकार है इहैव जन्मन्यर्थः-प्रयोजनं भोगसुखादि आस्था वा-इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहार्थ इहास्थो वा भोगपुरुष इहलोकप्रतिबद्धो वा परत्रैव जन्मान्तरे अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः परस्थो वा साधुबलितपस्वी वा इह परत्र च यस्यार्थ आस्था वा स सुश्रावक उभयप्रतिबद्धो वा उभयप्रतिषेधवान् कालशौकरिकादिर्मूढो वेति अथवा इहैव विवक्षिते ग्रामादो तिष्ठतीति इहस्थस्तत्प्रतिबन्धान्न परस्थो अन्यस्तु परत्र प्रतिबन्धात्परस्थः अन्यस्तूभयस्थः अन्यः सर्वाप्रतिबद्धत्वादनुभयस्थः साधुरिति। अर्थ - १. इस जन्म के ही भोग सुखादि को देखने वाला काम भोगों में आसक्त भोगी पुरुष अथवा नास्तिक (परलोक नहीं मानने वाला)। .. २. परलोक में सुख की चाह करने वाला साधु अथवा अज्ञानी बाल तपस्वी। ३. सुश्रावक उभय लोक में सुग्न चाहने वाला। ४. कालशौकरिक (कालियाकसाई) अज्ञानी अथवा इहस्थ का अर्थ - १. किसी विवक्षित ग्राम में रहने वाला, दूसरे ग्राम से सम्बन्धित नहीं। २. दूसरे ग्राम से ज्यादा सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् अपने ग्राम का भला न कर पर ग्राम का भला। करने वाला। ... ३. कोई स्व ग्राम और पर ग्राम दोनों का भला करने वाला। . जो किसी भी ग्राम से बन्धा हुआ न हो, वह अप्रतिबद्ध विहारी साधु। चार लक्खा, द्विशरीर जीव चत्तारि लोए समा पण्णत्ता तंजहा - अपइट्ठाणे णरए, जंबूहीवे दीवे, पालए जाणविमाणे, सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे । चत्तारि लोए समा सपक्खिं सपडिदिसिं पण्णत्ता तंजहा - सीमंतए णरए, समयक्खेत्ते, उडुविमाणे, इसीपब्भारा पुढवी । उडलोए णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता तंजहा - पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइ काइया उराला तसा पाणा । अहो लोए णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता तंजहा - एवं चेव । एवं तिरियलोए वि॥१७९॥ .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy