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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 विचिकित्सा रहित होता है । भेद को प्राप्त नहीं होता है यानी चित्त को डांवाडोल नहीं करता है और कलुषता को प्राप्त नहीं होता है । निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ अपने मन को ऊंचा नीचा नहीं करता है । इस कारण से धर्म से भ्रष्ट नहीं होता है एवं संसार में परिभ्रमण नहीं करता है यह पहली सुखशय्या है । इसके बाद अब दूसरी सुख शय्या बतलाई जाती है । जैसे कि कोई पुरुष मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर अपने लाभ से सन्तुष्ट रहता है । दूसरों के लाभ की आशा नहीं करता है, इच्छा नहीं करता है, प्रार्थना नहीं करता है और अभिलाषा नहीं करता है । इस प्रकार दूसरों के लाभ की आशा नहीं करता हुआ यावत् अभिलाषा नहीं करता हुआ मन को ऊंचा नीचा नहीं करता है । इस कारण से धर्म से भ्रष्ट नहीं होता है एवं संसार परिभ्रमण नहीं करता है । यह दूसरी सुखशय्या है । इसके बाद अब तीसरी सुखशय्या बतलाई जाती है । जैसे कि कोई पुरुष मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर देव सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों की आशा नहीं करता है यावत् अभिलाषा नहीं करता है । इस प्रकार देव और मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों की आशा न करता हुआ यावत् अभिलाषा न करता हुआ मन को ऊंचा नीचा नहीं करता है । इस कारण से धर्म से भ्रष्ट नहीं होता है एवं संसार परिभ्रमण नहीं करता है । यह तीसरी सुखशय्या है । इसके पश्चात् अब चौथी सुखशय्या बतलाई जाती है - जैसे कोई पुरुष मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर उसके मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न होता है कि जब हृष्ट, नीरोग, बलवान्, स्वस्थ शरीर वाले अरिहन्त भगवान् अनशन आदि तपों में से कोई एक उदार, कल्याणकारी विपुल उत्कृष्ट महाप्रभावशाली कर्मों को क्षय करने वाले तप को आदरभाव से अङ्गीकार करते हैं तो फिर क्या मुझे * आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को किसी पर कोप न करते हुए शान्तिपूर्वक दीनता न दिखाते हुए धैर्य के साथ समभाव पूर्वक सहन न करना चाहिए ?
- इस आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को समभावपूर्वक सहन न करने से क्षमा न करने से तितिक्षा न करने से और धैर्य पूर्वक सहन न करने से मुझे क्या होगा? मुझे एकान्तरूप से पापकर्म का बन्ध होगा । यदि मैं इस आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को समभावपूर्वक सहन करूंगा यावत् . धैर्यपूर्वक सहन करूंगा तो मुझे क्या होगा ? मुझे एकान्तरूप से निर्जरा होगी । इस प्रकार विचार करके उपरोक्त वेदना को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। अपितु अवश्य सहन करना चाहिए। यह चौथी सुखशय्या है।
विवेचन - सुख शय्या चार - ऊपर बताई हुई दुःख शय्या से विपरीत चार सुख शय्या जाननी चाहिये । वे संक्षेप में इस प्रकार हैं -
* केश लोच, ब्रह्मचर्य पालन आदि में होने वाली वेदना आभ्युपगमिकी कहलाती है और बुखार, अतिसार आदि रोगों से होने वाली वेदना औपक्रमिकी कहलाती है।
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