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________________ स्थान १ उद्दशक १ 000 100000000 अर्थ - इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमि भाग से चालीस हजार योजन नीचे जाने पर असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र की चमरचंचा नामक राजधानी है। इस पाठ से यह स्पष्ट होता है कि भवनपति देव समतल भूमि भाग से चालीस हजार योजन नीचे हैं इसलिए चालीस हजार योजन नीचे जाने पर उपरोक्त प्रस्तट और अन्तराल के हिसाब से तीसरा अन्तराल आता है। अतः यह कहना आगमानुकूल है कि ऊपर के दो अन्तराल खाली हैं । तीसरे अन्तराल से बारहवें अन्तराल तक इन दस अन्तरालों में दस जाति के भवनपति देवों के आवास हैं। प्रश्न भवनपति देवों के नाम के आगे 'कुमार' शब्द क्यों लगता है यथा - असुरकुमार नागकुमार आदि । उत्तर - 'असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमारा इति असुरकुमाराः । ' अर्थ - भवनपति देवों को कुमार की तरह सदा नव यौवन अवस्था बनी रहती है। इसलिए भवनपति देवों को कुमार कहते हैं । प्रश्न- नैरयिक शब्द का क्या अर्थ है ? - २३ उत्तर - नैरयिक शब्द का शास्त्रीय भाषा में शब्द है "णिरय" जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- 'निर+अय । निर-निर्गतम् - अविद्यमानम, अयं इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिका क्लिष्टसत्वविशेषा ।' Jain Education International अर्थ - यहाँ पर 'अय' शब्द का अर्थ पुण्य किया है। जिन जीवों का इष्ट फल देने वाला पुण्य अभी विद्यमान नहीं है उनको नैरयिक कहते हैं। नैरयिक जीव अत्यन्त दुःखों का अनुभव निरन्तर करते रहते हैं वे सदा क्लिष्ट परिणामी होते हैं। यद्यपि नैरयिकों के अनेक भेद हैं फिर भी नारकत्व की दृष्टि से नैरयिकों की एक वर्गणा है । यहाँ वर्गणा का अर्थ है राशि या समुदाय । प्रश्न- भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक किसे कहते हैं ? उत्तर 'भविष्यतीति भवा- भाविनी सा सिद्धिः - निर्वृतिर्येषां ते भवसिद्धिका - भव्याः. तद्विपरीतास्त्वभवसिद्धिका अभन्या इत्यर्थः । ' • अर्थ - जिन जीवों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है उन्हें भव सिद्धिक (भवी - भव्य ) कहते हैं। जिन जीवों में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता नहीं है वे अभवसिद्धिक (अभवी - अभव्य ) कहलाते हैं । भवसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक जीवों की समान रूप से एक एक वर्गणा है । - प्रश्न- हे भगवन् ! भवसिद्धिक जीव किस कारण से होता है और किस कारण से जीव अभवसिद्धिक होता है ? For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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