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स्थान ४ उद्देशक ३ 0000000
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कठिन शब्दार्थ - दुहसेज्जा - दुःख शय्या, संकिए - शंका करे, कंखिए - कांक्षा करे, विइगिच्छिए - विचिकित्सा करे, भेयसमावणे भेद को प्राप्त, कलुससमावण्णे - कलुषता को प्राप्त, विणिघायमावज्जइ - धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, उच्चावयं ऊँचा नीचा, पीहेड़ स्पृहा करता है, पत्थे - प्रार्थना (याचना) करता है, अभिलसइ - अभिलाषा करता है, संवाहण - मालिश, परिमद्दण - पीठी, गायब्धंग - गात्राभ्यङ्ग-तेल मालिश, गायुच्छोलणाई - गात्रोत्क्षालन - स्नान आदि ।
भावार्थ - चार प्रकार की दुःखशय्या कही गई हैं । यथा उनमें पहली दुःखशय्या यह है । यथा - कोई पुरुष मुण्डित होकर गृहस्थवास से निकल कर अनगार धर्म में प्रव्रजित यानी दीक्षा लेकर निर्ग्रन्थ प्रवचनों में शङ्का करे । कांक्षा यानी अन्यमत की वाञ्च्छा करे, विचिकित्सा यानी धर्मक्रिया के फल में सन्देह करे अथवा साधु साध्वी के प्रति घृणा करे, भेद को प्राप्त हो यानी बुद्धि को अस्थिर रखे, कलुषता को प्राप्त हो यानी चित्त में संकल्प विकल्प करे, चित्त को डांवाडोल करे और निर्ग्रन्थ प्रवचनों में श्रद्धा न रखे, प्रतीति न करे, रुचि न रखे। इस प्रकार निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा न रखता हुआ, प्रतीति .न रखता हुआ, रुचि न रखता हुआ मन को ऊंचा नीचा करता है । इस कारण वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है एवं संसार परिभ्रमण करता है । यह पहली दुःखशय्या है । इसके आगे अब दूसरी दुःख शय्या कही जाती है । कोई एक पुरुष मुण्डित होकर गृहस्थवास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करके अपने लाभ से सन्तुष्ट नहीं होता, दूसरों के लाभ में से कुछ लेने की इच्छा करता है स्पृहा करता है, याचना करता है, अभिलाषा करता है । इस प्रकार दूसरों के लाभ में से लेने की इच्छा करता हुआ यावत् अभिलाषा रखता हुआ मन को ऊंचा नीचा करता है । इस कारण वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है एवं संसार परिभ्रमण करता है । यह दूसरी दुःख शय्या है । इसके बाद अब तीसरी दुःख शय्या बतलाई जाती है । जैसे कोई पुरुष मुण्डित होकर यावत् दीक्षा लेकर दिव्य यानी देवसम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को प्राप्त करने की इच्छा करता है यावत् कि देव सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों को प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ यावत् अभिलाषा करता हुआ मन को ऊंचा नीचा करता है । इस कारण से वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है एवं संसार परिभ्रमण करता है । यह तीसरी दुःखशय्या है । इसके बाद अब चौथी दुःख शय्या बतलाई जाती है । जैसे कोई पुरुष मुण्डित होकर यावत् दीक्षा लेकर इस प्रकार विचार करता है कि जब मैं गृहस्थवास में रहता था तब मैं शरीर पर मालिश, पीठी, गात्राभ्यङ्ग यानी तेल मालिश, गात्रोत्क्षालन यानी स्नान आदि करता था किन्तु जब से मैं मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर साधु बना हूँ तब से मुझे ये मर्दन यावत् स्नान आदि प्राप्त नहीं होते हैं । इस प्रकार वह मर्दन यावत् स्नान की आशा करता है यावत् अभिलाषा करता है । इस तरह वह मर्दन यावत् स्नान आदि की इच्छा करता हुआ यावत् अभिलाषा करता हुआ मन को ऊंचा नीचा करता है । इस कारण से वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है और संसार परिभ्रमण करता है । यह चौथी दुःखशय्या है । साधु को ये चारों दुःखशय्या छोड़कर संयम में मन को स्थिर करना चाहिए ।
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