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________________ - स्थान ४ उद्देशक ३ ३७५ देशना के अनुसार बदलता रहता है । अर्थात् जैसी देशना सुनता है । उसी की ओर झुक जाता है । वह पताका समान श्रावक है । ___३. स्थाणु (ढूंठ) समान श्रावक - जो श्रावक गीतार्थ की देशना सुन कर भी अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ता वह श्रावक अनमन शील (अपरिवर्तन शील) ज्ञान सहित होने से स्थाणु के समान है। . ४. खर कण्टक समान श्रावक - जो श्रावक समझाये जाने पर भी अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ता, बल्कि समझाने वाले को कठोर वचन रूपी कांटों से कष्ट पहुंचाता है । जैसे बबूल आदि का कांटा उसमें फंसे हुए वस्त्र को फाड़ता है और साथ ही छुड़ाने वाले पुरुष के हाथों में चुभकर उसे दुःखित करता है। . देव अनागमन-आगमन के कारण - चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोएसुइच्छेज्जा माणुसंलोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए तंजहा - अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्येसु कामभोएसु मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अज्झोववण्णे से णं माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ णो परियाणाइ णो अटुं बंधइ णो णियाणं पैगरेइ णो ठिइपगप्पं पगरेइ । अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोएसु मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अझोववण्णे तस्स णं माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे दिव्वे संकंते भवइ । अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्येसु कामभोएसु मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अझोववण्णे, तस्स णं एवं भवइ इण्हिं गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं तेणं कालेणं अप्पाउया मणुस्सा कालधम्मणा संजुत्ता भवंति । अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्येसु कामभोएसु मुच्छिए, गिद्धे, गढिए, अझोववण्णे, तस्स णं माणुस्सए गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ । उड्डे वि य णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंचजोयणसयाइं हव्यमागच्छइ । इच्चेएहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए। चउहि ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छित्तए, संचाएइ हव्यमागच्छित्तए तंजहा - अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्येसु कामभोएसु अमुच्छिए जाव अणझोववण्णे, तस्स णं एवं भवइ-अस्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरिए इ वा उवज्झाए इ वा पवत्ती इ वा थेरे इ वा गणी इ वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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