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________________ ३२६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 चार प्रकार की केतन यानी टेढी वस्तुएं कही गई है यथा - बांस का मूल, मेंढे का सींग, चलता हुआ बैल जो मूत्र करता है उसकी लकीर और अवलेखनिका यानी बांस को छीलने से ऊपर से जो पतली छाल उतरती है वह छाल । इसी तरह चार प्रकार की माया कही गई है यथा - बांस के मूल के समान, मेंढे के सींग के समान, चलता हुआ बैल जो मूत्र करता है उसकी जो टेढी लकीर बन जाती है उसके समान, बांस के छीलके के समान । बांस के मूल के समान गूढ माया में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है । मेंढे के सींग के समान माया में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो तिर्यञ्च योनि वाले जीवों में उत्पन्न होता है । गोमूत्रिका के समान माया में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है । अवलेखनिका यानी बांस के छीलके के समान माया में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है । ___ चार प्रकार के वस्त्र कहे गये हैं यथा - कृमिरागरक्त, कर्दमरागरक्त यानी गायों के बांधने के स्थान में गोबर और मूत्र के संयोग से होने वाले कीचड़ में रंगा हुआ, खञ्जन यानी दीपक के तेल युक्त मैल में रंगा हुआ और हल्दी के रंग में रंगा हुआ। इसी तरह चार प्रकार का लोभ कहा गया है यथा - कृमिराग से रंगे हुए वस्त्र के समान, कर्दमराग से रंगे हुए वस्त्र के समान, खञ्जनराग से रंगे हुए वस्त्र के समान, हल्दी के रंग में रंगे हुए वस्त्र के समान । कृमिरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है । कर्दमरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो तिर्यञ्च योनि वाले जीवों में उत्पन्न होता है । खञ्जनराग से रक्त वस्त्र के समान लोभ में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है । हल्दी के रंग में रंगे हुए वस्त्र के समान लोभ में रहा हुआ जीव यदि काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है। ____ कोई लोग ऐसा कहते हैं कि मनुष्य के खून को किसी बर्तन में रखने पर उसमें कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। उन कीड़ों का मर्दन करके उसमें रंगा हुआ वस्त्र कृमि राग रक्त कहलाता है। विवेचन - श्री आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित संस्कृत टीका वाले स्थानाङ्ग सूत्र में और पूज्य श्री अमोलख ऋषिजी महाराज वाले स्थानाङ्ग सूत्र में तथा हस्त लिखित प्रतियों में यहाँ पर यानी चौथे ठाणे के दूसरे उद्देशक में माया, मान और क्रोध की उपमाएं और उनका स्वरूप दिया गया है और चौथे ठाणे के तीसरे उद्देशक के प्रारम्भ में क्रोध की उपमा और क्रोध का स्वरूप दिया गया है। किन्तु जैन सूत्रों में जहाँ कहीं कषाय का वर्णन आया है वहाँ सब जगह क्रोध, मान, माया, लोभ यह क्रम आया है। इसलिए इस पाठ के विषय में छानबीन करने से पता चला कि पूना के शास्त्र भण्डार में ताड़पत्र पर लिखी हुई स्थानांग सूत्र की जो प्रति है उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, इस क्रम से इनका स्वरूप और उपमाएं दी हुई है। अतः उस ताड़पत्र की प्रति के अनुसार ही यहाँ उसी क्रम से पाठ दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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