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________________ ३२२ . श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 देवतम, वायफलिहे - वात परिध, वायफलिहखोभे - वातपरिध क्षोभ, देवरण्णे - देवारण्य, देववूहे - देव व्यूह। भावार्थ - चार कारणों से साधु अकेली साध्वी के साथ आलापसंलाप यानी बातचीत करता हुआ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । यथा - मार्ग का अजान होने से मार्ग के लिए पूछे, कोई साध्वी मार्ग न जानती हो अथवा मार्ग भल गई हो तो उसको मार्ग बतलावे, कोई विशेष कारण उत्पन्न होने पर अशन, पानी, खादिम, स्वादिम देवे और दिलावे । विशेष कारण उपस्थित होने पर इन चार बातों को करता हुआ साधु भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं । यथा - तम. तमस्काय. अन्धकार. महान अन्धकार । ___ तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं । यथा - लोकान्धकार, लोक तम, देवान्धकार, देवंतम । तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं । यथा - वातपरिघ यानी वायु को रोकने के लिए अर्गला के समान, वातपरिघंक्षोभ यानी वायु को क्षुब्ध करने के लिए परिघ नामक शस्त्र के समान, देवारण्य यानी बलवान् देव के भय से डर कर देव उसमें जाकर छिप जाते हैं । देवव्यूह यानी संग्राम में जैसे व्यूह दुरधिगम्य होता है उसी तरह यह देवों के लिए भी व्यूह के समान है । तमस्काय सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और . माहेन्द्र. इन चार देवलोकों को आवृत्त करके यानी घेर कर रही हुई है । - विवेचन - 'एगो एगिथिए सद्धिं व चिट्ठण संलवे" - इस आगम वाक्य के अनुसार अकेला साधु अकेली स्त्री के के साथ खड़ा नहीं रहे और बोले भी नहीं परन्तु आपवादिक स्थिति में निम्न चार कारणों से साधु अकेली साध्वी के साथ आलाप (थोड़ा अथवा पहली बार बोलता हुआ) और संलाप (परस्पर बार-बार बोलता हुआ) करता हुआ आचार-भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। यथा - १. मार्ग पूछते हुए २. अनजान अथवा मार्ग भूली हुई साध्वी को मार्ग बतलाते हुए ३-४. विशेष कारण होने पर अशन, पानी खादिम स्वादिम देते हुए और दिलाते हुए। आपवादिक स्थिति नहीं होने पर भी अपवाद मान कर प्रवृत्ति करना स्वच्छन्दता है और स्वच्छन्दता संयम से पतित करने वाली होती है। तमस्काय - 'तमसः अप्कायपरिणामरूपस्यान्धकारस्य कायः- प्रचयस्तमस्कायः।' .. अर्थ - तमस्काय अप्काय का परिणाम रूप है उसका प्रचयसमूह तमस्काय कहलाता है। जो असंख्यातवें अरुणवर द्वीप की बाहर की वेदिका के अन्त से अरुणवर समुद्र में ४२ हजार योजन जाने पर वहाँ पानी से एक प्रदेश श्रेणी वाली तमस्काय निकलती है । वह १७२१ योजन ऊपर जाकर विस्तृत हो जाती है । प्रथम के चार देवलोकों को घेर कर पांचवें ब्रह्म देवलोक के रिष्ठ विमान तक पहुंची है। चार प्रकार के पुरुष चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - संपागड पडिसेवी णाममेगे, पच्छण्ण पडिसेवी णाममेगे, पडुप्पण्णणंदी णाममेगे, णिस्सरणणंदी णाममेगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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