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रायकहं कहित्ता भवइ, विवेगेणं विउस्सग्गेणं णो सम्ममप्पाणं भावित्ता भवइ, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरित्ता भवइ, फासूयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्मं गवेसित्ता भवइ, इच्चेएहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वाणिग्गंथीण जाव णो समुप्पज्जेज्जा । चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अइसेस णाणदंसणे समुप्पज्जिकामे समुप्पज्जेज्जा तंजहा - इत्थीकहं भत्तकहं देसकह रायकहं णो कहित्ता भवइ, विवेगेणं विउस्सग्गेणं सम्ममप्पाणं भावित्ता भवइ, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरित्ता भवइ, फासूयस्स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्मं गवेसित्ता भवइ, इच्चेएहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा जाव समुप्पज्जेज्जा ॥ १५० ॥
कठिन शब्दार्थ - किसे - कृश-दुर्बल, दढे दृढ़, समुप्पज्जइ उत्पन्न होता है, अस्सिं - इस में, अइसेसे - अतिशेष, अभिक्खणं अभिक्खणं- बार-बार, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि - पिछली रात्रि के समय में, धम्मजागरियं धर्म जागरणा, फासुयस्स प्रासुक का, एसणिज्जस्स - एषणीय का, उंछस्स - थोड़ा थोड़ा का, सामुदाणियस्स - सामुदानिक गोचरी का, गवेसित्ता - गवेषणा, सम्मं : सम्यक् प्रकार से ।
भावार्थ - चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा कोई एक पुरुष शरीर से कृश यानी दुर्बल और भाव से भी कृश यानी हीन पराक्रम वाला, कोई एक पुरुष शरीर से कृश किन्तु भाव से दृढ़. यानी दृढ़ पराक्रम वाला, कोई एक पुरुष शरीर से दृढ़ किन्तु भाव से कृश, कोई एक पुरुष शरीरं से भी दृढ़ और भाव से भी दृढ़. । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष भाव से कृश और शरीर से भी कृश, कोई एक पुरुष भाव से कृश किन्तु शरीर से दृढ़, कोई एक पुरुष भाव से दृढ़ किन्तु शरीर से कृश, कोई एक पुरुष भाव से दृढ़ और शरीर से भी दृढ़ । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा- किसी एक कृश शरीर वाले पुरुष को छद्मस्थ सम्बन्धी ज्ञान दर्शन अथवा केवलज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं किन्तु दृढ़ शरीर वाले पुरुष को नहीं। किसी एक दृढ़ शरीर वाले पुरुष को ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं किन्तु कृश शरीर वाले को नहीं, किसी एक कृश शरीर वाले पुरुष को भी ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं और दृढ़ शरीर वाले को भी उत्पन्न होते हैं, किसी एक न तो कृश शरीर वाले पुरुष को ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं और न दृढ़ शरीर वाले को उत्पन्न होते हैं।
साधु साध्वियों को अमुक समय में उत्पन्न होते हुए भी अतिशेष यानी केवलज्ञान केवलदर्शन चार कारणों से उत्पन्न नहीं होते हैं । यथा जो बार बार स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा करता है, विवेक यानी अशुद्ध आहार आदि का त्याग करने से तथा कायोत्सर्ग करने से जो अपनी आत्मा को
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स्थान ४ उद्देशक २
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