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________________ श्री स्थानांग सूत्र 0000000000 परिस्थिति के अनुसार जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त है। चार प्रकार का प्रायश्चित्त कहा गया है । यथा बार बार सेवन किये गये अनाचरणीय कार्य का प्रायश्चित्त सो प्रतिसेवना प्रायश्चित्त । शय्यातर पिण्ड और आधाकर्मादि दोष, इन दोनों के शामिल हो जाने पर लिया. जाने वाला प्रायश्चित्त सो संयोजना प्रायश्चित्त । एक पाप कार्य की विशुद्धि के लिए लिये गये प्रायश्चित्त में फिर दोष सेवन करे । उसकी विशुद्धि के लिए फिर प्रायश्चित्त लिया जाय, इस प्रकार छह महीने तक जो प्रायश्चित्त आवे सो आरोपणा प्रायश्चित्त । अपने अपराध को छिपाना अथवा दूसरे ढंग से कहना सो परिकुञ्चना प्रायश्चित्त अथवा परिवञ्चना प्रायश्चित्त कहलाता है। २८८ विवेचन - मूल शब्द " दिट्ठिवाय" है, जिसकी संस्कृत छाया दो तरह से होती है यथा दृष्टिवाद अथवा दृष्टिपात । दृष्टि का अर्थ है दर्शन अर्थात् जिसमें अनेक दर्शनों का मतमतान्तरों का वर्णन किया गया हो उसे दृष्टिवाद कहते हैं अर्थात् अनेक दृष्टियों की चर्या । वस्तु तत्त्व का निर्णय "प्रमाण नयैरधिगमः" अर्थात् प्रमाण और नयों से होता है । सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण करना प्रमाण विषय है। वस्तु के एक अंश को ग्रहण करना नयों का विषय है। दृष्टिपात शब्द का अर्थ है " दृष्टयो दर्शनानि-नया पतन्ति-अवतरन्ति यस्मिन्नसौ दृष्टिपातः " जिसमें वस्तु तत्त्व का निर्णय अनेक नयों से किया गया हो, उसे दृष्टि पात कहते हैं। दृष्टिवाद चार प्रकार का कहा गया है - - १. परिकर्म - जो सूत्र आदि ग्रहण करने की योग्यता का संपादन करने में गणित के संस्कार की तरह समर्थ है उसे परिकर्म कहते हैं । - २. सूत्र - जो सर्व द्रव्य, पर्याय और नय के अर्थ को सूचित करता हो उसे सूत्र कहते हैं । ३. पूर्वगत समस्त श्रुत में प्रथम रचित होने से पूर्व कहलाता है । पूर्व के १४ भेद हैं । पूर्व में रहा हुआ श्रुत पूर्वगत कहलाता है । ४. अनुयोग - योग अर्थात् जोड़ना, सूत्र के अपने अंभिधेय विषय के साथ योग (जोडना) को अनुयोग कहते हैं। तीर्थंकरों के सम्यक्त्व प्राप्ति और उनके पूर्व भव आदि का जिसमें वर्णन है वह मूल प्रथमानुयोग है। जिसमें कुलकर आदि की वक्तव्यता बतायी है वह गंडिकानुयोग है। यद्यपि दृष्टिवाद के पांच भेद हैं। पांचवाँ भेद चुलिका है परन्तु यहाँ पर चौथा ठाणां होने के कारण चार भेद ही लिये गये हैं। पांचवें ठाणें में पाँचों भेदों का वर्णन किया जायेगा । प्रायश्चित्त - संचित पाप को छेदन करना प्रायश्चित्त है । अथवा अपराध से मलिन चित्त को प्रायः शुद्ध करने वाला जो द्रव्य है वह प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त चार प्रकार के हैं - १. ज्ञान प्रायश्चित्त २. दर्शन प्रायश्चित्त ३. चारित्र प्रायश्चित्त ४. व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त । ज्ञान प्रायश्चित्तं पाप को छेदने एवं चित्त को शुद्ध करने वाला होने से ज्ञान ही प्रायश्चित्त रूप है । अत: इसे ज्ञान प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिए जो आलोचना Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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