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स्थान ४ उद्देशक १
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मध्यम परिषदा के, दव्यसंसारे - द्रव्य संसार, खेत्तसंसारे - क्षेत्र संसार, काल संसारे - काल संसार, भावसंसारे- भाव संसार।
भावार्थ - चार प्रधान दिशाकुमारियाँ कही गई हैं । यथा - रुचा, रुचांशा, सुरुपा और रुचावती । ये मध्यरुचक पर रहती हैं और तीर्थक्कर के जन्म समय में उपस्थित होकर नाल छेदन करती हैं । चार प्रधान विद्युत्कुमारियां कही गई हैं । यथा - चित्रा, चित्रकनका, सतेरा अथवा श्रेयांशा और सौदामिनी । ये विदिग् रुचक पर रहती हैं । तीर्थकर भगवान् के जन्म समय में वहाँ उपस्थित होती हैं और हाथों में दीपक लेकर चारों दिशाओं में खड़ी रह कर गाती हैं।
देवों के राजा देवों के इन्द्र शक्र की मध्यम परिषदा के देवों की स्थिति चार पल्योपम कही गई हैं। देवों के राजा देवों के इन्द्र ईशान की मध्यम परिषदा की देवियों की स्थिति चार पल्योपम कही गई हैं। चार प्रकार का संसार कहा गया है। यथा- जीव पुद्गल आदि द्रव्यों का परिभ्रमण सो द्रव्य संसार, चौदह राजुलोक परिमाण संसार में परिभ्रमण सो क्षेत्र संसार, दिन रात यावत् पल्योपम सागरोपम तक परिभ्रमण करना सो काल संसार और औदयिक आदि भावों का परिणमन सो भावसंसार है ।
. . दृष्टिवाद, प्रायश्चित्त . चउबिहे दिट्ठिवाए पण्णत्ते तंजहा - परिकम्मं सुत्ताई पुष्वगए अणुजोगे । चउविहे पायच्छिते पण्णत्ते तंजहा - णाणपायच्छित्ते, दसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते, चियत्तकिच्च पायच्छित्ते। चउविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते तंजहा - परिसेवणा पायच्छित्ते, संजोयणा पायच्छित्ते, आरोवणा पायच्छित्ते, पलिउंचणा पायच्छित्ते॥१३८॥
कठिन शब्दार्थ - दिट्ठिवाए - दृष्टिवाद, परिकम्मं - परिकर्म, सुत्ताई-सूत्र, पुव्वगए - पूर्व गत, अणुजोगे - अनुयोंग, पायच्छित्ते - प्रायश्चित्त, चियत्तकिच्च - व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त, परिसेवणाप्रतिसेवना, संजोयणा - संयोजना, आरोवणा - आरोपना, पलिउंचणा - परिकुञ्चना, परिवंचना ।
भावार्थ - चार प्रकार का दृष्टिवाद कहा गया है यथा - परिकर्म - इसमें सूत्र आदि ग्रहण करने की योग्यता विषयक वर्णन है । सूत्र - इसमें द्रव्य, पर्याय और नय आदि का वर्णन है। पूर्वगत - इसमें उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्वो का वर्णन है । अनुयोग - इसमें अनुयोगों का वर्णन है।
. चार प्रकार का प्रायश्चित्त कहा गया है । यथा ज्ञान प्रायश्चित्त यानी ज्ञान के अतिचारों की आलोचना, दर्शन प्रायश्चित्त यानी दर्शन के अतिचारों की आलोचना। चारित्र प्रायश्चित्त यानी चारित्र विषयक अतिचारों की आलोचना और व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त यानी गीतार्थ के द्वारा यथावसर कम ज्यादा करके जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह उसके लिए विशुद्धि करने वाला होता है। अथवा अवस्था एवं
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