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________________ स्थान ४ उद्देशक १ २७७ नोट - ऊपर जो कषाय की स्थिति (जीवपर्यन्त, एक वर्ष, चार मास और एक पक्ष) बतलाई गयी है यह लोक व्यवहार और टीकाकारों की मान्यता अनुसार है। आगमानुसार तो चारों कषाय की स्थिति अन्तर्मुहूर्त तक की ही होती है। क्रोध के चार भेद और उनकी उपमाएं - १. अनन्तानुबन्धी क्रोध २. अप्रत्याख्यान क्रोध ३. प्रत्याख्यानावरण क्रोध ४. संज्वलन क्रोध । १. अनन्तानुबन्धी क्रोध - पर्वत के फटने पर जो दरार होती है । उसका मिलना कठिन है । उसी प्रकार जो क्रोध किसी उपाय से भी शान्त नहीं होता । वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है । - २. अप्रत्याख्यान क्रोध - सूखे तालाब आदि में मिट्टी के फट जाने पर दरार हो जाती है। परन्तु जब दुबारा वर्षा होती है । तब वह दरार फिर मिल जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध विशेष परिश्रम से शान्त होता है । वह अप्रत्याख्यान क्रोध है। ३. प्रत्याख्यानावरण क्रोध - बालू में लकीर खींचने पर कुछ समय में हवा से वह लकीर वापिस भर जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध कुछ उपाय से शान्त हो । वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है । ४. संज्वलन क्रोध - पानी में खींची हुई लकीर जैसे खिंचने के साथ ही मिट जाती है । उसी प्रकार किसी कारण से उद्रय में आया हुआ जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जावे । उसे संज्वलन क्रोध कहते हैं। ___ मान के चार भेद और उनकी उपमाएं - १. अनन्तानुबन्धी. मान २. अप्रत्याख्यान मान ३. प्रत्याख्यानावरण मान ४. संज्वलन मान । १. अनन्तानुबन्धी मान - जैसे पत्थर का खम्भा अनेक उपाय करने पर भी नहीं नमता । उसी प्रकार जो मान किसी भी उपाय से दूर न किया जा सके वह अनन्तानुबन्धी मान है । २. अप्रत्याख्यान मान - जैसे हड्डी अनेक उपायों से नमती है । उसी प्रकार जो मान अनेक उपायों और अति परिश्रम से दूर किया जा सके । वह अप्रत्याख्यान मान है। ३. प्रत्याख्यानावरण मान - जैसे काष्ठ, तैल वगैरह की मालिश से नम जाता है । उसी प्रकार जो मान थ्रोड़े उपायों से नमाया जा सके, वह प्रत्याख्यानावरण मान है । ४. संग्खलन मान - जैसे बेंत बिना मेहनत के सहज ही नम जाती है । उसी प्रकार जो मान सहज ही छूट जाता है वह संज्वलन मान है। माया के चार भेद और उन की उपमाएं - १. अनन्तानुबन्धी माया २. अप्रत्याख्यान माया ३. प्रत्याख्यानावरण माया ४. संज्वलन माया । १. अनन्तानुबन्धी माया - जैसे बांस की कठिन जड़ का टेढ़ापन किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता । उसी प्रकार जो माया किसी भी प्रकार दूर न हो, अर्थात् सरलता रूप में परिणत न हो । वह अनन्तानुबन्धी माया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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