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'श्री स्थानांग सूत्र
प्रज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं। क्रोधवश जीव किसी की बात सहन नहीं करता और बिना विचारे अपने और पराए अनिष्ट के लिए हृदय में और बाहर जलता रहता है । '
२. मान - मान मोहनीय कर्म के उदय से जाति आदि गुणों में अहंकार बुद्धिरूप आत्मा के परिणाम को मान कहते हैं । मान वश जीव में छोटे बड़े के प्रति उचित नम्र भाव नहीं रहता है। मानी जीव अपने को बड़ा समझता है और दूसरों को तुच्छ समझता हुआ उनकी अवहेलना करता है। गर्व वश वह दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर सकता है। ___३. माया - माया मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन, काया की कुटिलता द्वारा परवञ्चना अर्थात् दूसरे के साथ कपटाई, ठगाई, दगारूप आत्मा के परिणाम विशेष को माया कहते हैं ।
४. लोभ - लोभ मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्यादि विषयक इच्छा, मूर्छा, ममत्व भाव एवं तृष्णा अर्थात् असन्तोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं ।
प्रत्येक कषाय के चार चार भेद - १. अनन्तानुबन्धी २. अप्रत्याख्यान ३. प्रत्याख्यानावरण ४. संज्वलन ।
१. अनन्तानुबन्धी - जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है। उस कषाय को अनन्तानबन्धी कषाय कहते हैं । यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है । एवं जीवन पर्यन्त बना रहता है । इस कषाय से जीव नरक गति योग्य कर्मों का बन्ध करता है।
२. अप्रत्याख्यान - जिस कषाय के उदय से देश विरति रूप अल्प (थोड़ा सा भी) प्रत्याख्यान नहीं होता उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते हैं । इस कषाय से श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती । यह कषाय एक वर्ष तक बना रहता है । और इससे तिर्यञ्च गति योग्य कर्मों का बन्ध होता है। .
३. प्रत्याख्यानावरण - जिस कषाय के उदय से सर्व विरति रूप प्रत्याख्यान रुक जाता है अर्थात् साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होती । वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है । यह कषाय चार मास तक बना रहता 'है । इस के उदय से मनुष्य गति योग्य कर्मों का बन्ध होता है। .
४. संग्वलन - जो कषाय परीषह तथा उपसर्ग के आ जाने पर मुनियों को भी थोड़ा सा जलाता है । अर्थात् उन पर भी थोड़ा सा असर दिखाता है। उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। यह कषाय सर्व विरति रूप साधु धर्म में बाधा नहीं पहुंचाता। किन्तु सब से ऊंचे यथाख्यात चारित्र में बाधा पहुंचाता है। यह कषाय एक पक्ष तक बना रहता है और इससे देवगति योग्य कर्मों का बन्ध होता है ।
ऊपर जो कषायों की स्थिति एवं नरकादि गति दी गई है । वह बाहुल्यता की अपेक्षा से हैं । क्योंकि बाहुबलि मुनि को संज्वलन कषाय एक वर्ष तक रहा था और प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के अनन्तानुबन्धी कषाय अन्तर्मुहूर्त तक ही रहा था । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय के रहते हुए मिथ्या दृष्टियों का नवग्रैवेयक तक में उत्पन्न होना शास्त्र में वर्णित है।
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