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________________ २७२ श्रीं स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान पूर्वधारी को होता है और मरुदेवी माता की तरह जो पूर्वधर नहीं है, उन्हें अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों में परस्पर संक्रमण रूप यह शुक्लध्यान होता है। ____२. एकत्व वितर्क अविचारी - पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व अर्थात् अभेद से किसी एक पदार्थ अथवा पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व वितर्क है। इस ध्यान में अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता है। निर्वात गृह में रहे हुए, दीपक की तरह ध्यान में चित्त विक्षेप रहित अर्थात स्थिर रहता है। ३. सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती - निर्वाण गमन के पूर्व केवली भगवान् मन, वचन, योगों का विरोध कर लेते हैं और अर्द्ध काययोग का भी निरोध कर लेते हैं। उस समय केवली के कायिकी उच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है। परिणामों के विशेष बढ़े चढ़े रहने से यहां से केवली पीछे नहीं हटते। यह तीसरा सूक्ष्म क्रिया अनिर्वती शुक्लध्यान है। ४. समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती - शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली सभी योगों का निरोध कर लेता है। योगों के निरोध से सभी क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं। यह ध्यान सदा बना रहता है। इसलिए इसे . समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं। पृथक्त्व वितर्क सविचारी शुक्लध्यान सभी योगों में होता है। तर्क अविचार शुक्लध्यान किसी एक ही योग में होता है। सूक्ष्म क्रिया अनिर्वती शुक्लध्यान केवल काय योग में होता है। चौथा समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान अयोगी को ही होता है। छद्मस्थ के मन को निश्चल करना ध्यान कहलाता है और केवली की काया को निश्चल करना ध्यान कहलाता है। शुक्लध्यान के चार लिङ्ग- १. अव्यथ २. असम्मोह ३. विवेक ४. व्युत्सर्ग १. शुक्लध्यानी परीषह उपसर्गों से डर कर ध्यान से चलित नहीं होते हैं। इसलिए वह अन्यथ लिङ्ग वाला है। २. शुक्लध्यानी को सूक्ष्म अत्यन्त गहन विषयों में अथवा देवादि कृ सम्मोह नहीं होता है। इसलिए वह असम्मोह लिङ्ग (चिह्न) वाला होता है। ३. शुक्लध्यानी आत्मा को देह से भिन्न एवं सर्व संयोगों को आत्मा से भिन्न समझता है। इसलिए वह विवेक लिङ्ग (चिह्न) वाला होता है। ३. शुक्लध्यानी निःसंग रूप से देह एवं उपधि का त्याग करता है। इसलिए वह व्युत्सर्ग लिङ्ग वाला होता है। शुक्ल ध्यान के चार आलम्बन - जिन मत में प्रधान क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति इन चारों आलम्बनों से जीव शुक्ल ध्यान को प्राप्त करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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