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________________ - दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णा वश धनवान् । कहूँ न सुख संसार में, सब जंग देख्यो छान ॥ अर्थ संसार में कोई भी जीव सुखी नहीं है। निर्धन पुरुष धन के बिना दुःखी है और धनवान् पुरुष तृष्णा के वश दुःखी है। माता-पिता स्वजन सम्बन्धी का सम्बन्ध भी सदा नित्य नहीं रहता है क्योंकि पति मरकर पत्नी बन सकता है और पत्नी मरकर माता, बहन, पति, पुत्र आदि बन सकता है। स्थान ४ उद्देशक १ राजा प्रतिबुद्ध, चन्द्रछाय, रुक्मी, शङ्ख, आदिनशत्रु और जीतशत्रु नामक छह राजा भगवान् मल्लिनाथ के पूर्व भव के मित्र थे इस भव में वे छहों मल्लिकुमारी को अपनी पत्नी बनाने के लिये बारात लेकर आये थे । फिर मल्लिकुमारी के उपदेश से उन्होंने अपना पूर्व भव जाना वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और भगवान् मल्लिनाथ के पास दीक्षा लेकर आत्म-कल्याण किया इस प्रकार इन छहों मित्रों ने संसार भावना भाई थी। इसका विस्तृत वर्णन ज्ञातासूत्र के आठवें अध्ययन में है । ज्ञाता सूत्र के उन्नीस कथाओं का हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के पांचवें भाग में है । धर्मध्यान के चार भेद दूसरी तरह से भी हैं जिनका वर्णन ग्रन्थों में मिलता है वे इस प्रकार हैं धर्मध्यान के चार भेद - १. पिण्डस्थ २. पदस्थ ३. रूपस्थ ४. रूपातीत . १. पिण्डस्थ - पार्थिवी, आग्नेयी आदि पांच धारणाओं का एकाग्रता से चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। २. पदस्थ - नाभि में सोलह पांखड़ी के, हृदय में चौबीस पांखड़ी के तथा मुख पर आठ पांखड़ी के कमल की कल्पना करना और प्रत्येक पांखड़ी पर वर्णमाला के अ आ इ ई आदि अक्षरों की अथवा पञ्च परमेष्ठी मंत्र के अक्षरों की स्थापना करके एकाग्रता पूर्वक उनका चिन्तन करना अर्थात् किसी पद के आश्रित होकर मन को एकाग्र करना पदस्थ ध्यान है। ३. रूपस्थ - शास्त्रोक्त अरिहन्त भगवान् की शान्त दशा को हृदय में स्थापित करके स्थिर चित्त से उसका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है । २७१ 00000 ४. रूपातीत - रूप रहित निरंजन निर्मल सिद्ध भगवान् का आलंबन लेकर उसके साथ आत्मा की एकता का चिन्तन करना रूपातीत ध्यान है। Jain Education International शुक्ल ध्यान के चार भेद - १. पृथक्त्व वितर्क सविचारी । २. एकत्व वितर्क अविचारी । ३. सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती ४. समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती । १. पृथक्त्व वितर्क सविचारी एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का पृथक्-पृथक् रूप से विस्तार पूर्वक पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्व वितर्क सविचारी है। यह ध्यान विचार सहित होता है। विचार का स्वरूप है अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) एवं योगों में संक्रमण अर्थात् इस ध्यान में अर्थ से शब्द में और शब्द से अर्थ में और शब्द से शब्द में अर्थ अर्थ में एवं एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है। - For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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