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________________ २६४ श्री स्थानांग सूत्र निर्ममत्व भाव, मार्दव यानी मान न करना और उदय में आये हुए मान को विफल करना, आर्जव अर्थात् माया न करना और उदय में आई हुई माया को विफल करना। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं यानी भावनाएं कही गई हैं यथा-अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा अर्थात् 'यह जीव अनादि काल से इस अनन्त संसार में परिभ्रमण कर रहा है' इस प्रकार भवपरम्परा की अनन्तता का विचार करना। विपरिणामानुप्रेक्षा अर्थात् 'सांसारिक पदार्थ, ऋद्धि, सम्पत्ति आदि सब अशाश्वत हैं। शुभ पुद्गल अशुभ और अशुभ पुद्गल शुभ रूप में परिणत हो जाते हैं इस प्रकार पदार्थों के विविध परिणामों पर विचार करना।' अशुभानुप्रेक्षा अर्थात् 'इस संसार को धिक्कार है जिसमें एक सुन्दर रूप वाला अभिमानी पुरुष मर कर अपने ही मृत शरीर में कीड़े रूप से उत्पन्न हो जाता है' इस प्रकार संसार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना। अपायानुप्रेक्षा अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषाय संसार के मूल को सींचने वाले हैं। इन्हीं से आस्रवों का आगमन होता है और जीव अनेक दुःखों को प्राप्त करता है। इस प्रकार कषाय और आस्रवों से होने वाले विविध अपायों का चिन्तन करना अपायानुप्रेक्षा है। विवेचन - एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान हैं। छद्मस्थों का अन्तुमुहूर्त परिमाण एक वस्तु में चित्त को स्थिर रखना ध्यान कहलाता है और केवली भगवान् का तो योगों का निरोध करना ध्यान कहलाता है। ध्यान के चार भेद हैं- १. आर्तध्यान २. रौद्रध्यान ३. धर्मध्यान और ४. शुक्लध्यान । १. आर्तध्यान - ऋत अर्थात् दुःख के निमित्त या दुःख में होने वाला ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। अथवा आर्त अर्थात् दुःखी प्राणी का ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। अथवा मनोज्ञ वस्तु के वियोग एवं अमनोज्ञ वस्तु के संयोग आदि कारण से चित्त की घबराहट आर्तध्यान है। अथवा जीव मोह वश राज्य का उपभोग, शयन, आसन, वाहन, स्त्री, गंध, माला, मणि, स्त्म विभूषणों में जो अतिशय इच्छा करता है वह आर्तध्यान है। २. रौद्रध्यान - हिंसा, झूठ, चोरी, धन रक्षा में मन को जोड़ना रौद्रध्यान है अथवा हिंसादि विषय का अतिक्रूर परिणाम रौद्रध्यान है। अथवा हिंसोन्मुख आत्मा द्वारा प्राणियों को रुलाने वाले व्यापार का चिन्तन करना रौद्रध्यान है। अथवा छेदना, भेदना, काटना, मारना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना, इनमें जो राग करता है और जिसमें अनुकम्पा भाव नहीं है। उस पुरुष का ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है। ३. धर्मध्यान - धर्म अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञादि पदार्थ स्वरूप के पर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्म ध्यान है । अथवा श्रुत और चारित्र धर्म से सहित ध्यान, धर्म ध्यान कहलाता है अथवा सूत्रार्थ की साधना करना, महाव्रतों को धारण करना, बन्ध और मोक्ष तथा गति-आगति के हेतुओं का विचार करना, पांच इन्द्रियों के विषय से निवृत्ति और प्राणियों में दया भाव इन में मन की एकाग्रता का होना धर्मध्यान है। अथवा जिनेन्द्र भगवान् और साधु के गुणों का कथन करने वाला उनकी प्रशंसा करने वाला विनीत श्रुतशील और संयम में अनुरक्त आत्मा धर्मध्यानी है उसका ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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