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स्थान ४ उद्देशक १
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रुचि रखना, निसर्गरुचि अर्थात् किसी के उपदेश के बिना स्वभाव से ही जिनभाषित तत्त्वों पर श्रद्धा करना, सूत्ररुचि अर्थात् आगम द्वारा जिनभाषित द्रव्यादि पदार्थों पर श्रद्धा करना, अवगाढरुचि अर्थात् द्वादशाङ्ग का विस्तारपूर्वक ज्ञान करके जिनभाषित तत्त्वों पर श्रद्धा होना । धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं यथा - वाचना अर्थात् शिष्य को सूत्र आदि पढाना, प्रतिपृच्छना अर्थात् सूत्र आदि में शंका होने पर उसका निवारण करने के लिए गुरु महाराज से पूछना, परिवर्तना अर्थात् पहले पढे हुए सूत्रादि का विस्मरण न हो जाय इसलिए तथा निर्जरा के लिए उनकी आवृत्ति करना, अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्र अर्थ का चिन्तन एवं मनन करना । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही गई है यथा- एकानुप्रेक्षा अर्थात् 'इस संसार में मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं ही किसी का हूँ' इत्यादि रूप से आत्मा के एकत्व एवं असहायपन की भावना करना । अनित्यानुप्रेक्षा अर्थात् शरीर, जीवन, ऋद्धि संपत्ति तथा सांसारिक सभी पदार्थ अनित्य हैं, ऐसा विचार करना । अशरणानुप्रेक्षा अर्थात् 'जन्म, जरा, मरण, व्याधि और वेदना से पीड़ित इस आत्मा का रक्षक एवं त्राण शस्ण रूप कोई नहीं है। यदि कोई आत्मा के लिए त्राण - शरण रूप है तो जिनेन्द्र भगवान् के प्रवचन ही है' इस प्रकार आत्मा के त्राण-शरण के अभाव का विचार करना । संसारानुप्रेक्षा अर्थात् 'इस संसार में माता बन कर वही जीव पुत्री, बहन और स्त्री बन जाता है तथा पुत्र का जीव पिता, भाई और यहां तक की शत्रु बन जाता है' इस प्रकार संसार के. विचित्रतापूर्ण स्वरूप का विचार करना संसारानुप्रेक्षा है ।
चतुष्पदावतार यानी स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा इन चार बातों से जिसका विचार किया गया है ऐसा शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है यथा- पृथक्वितर्क सविचारी अर्थात् एक द्रव्य की अनेक पर्यायों का पृथक् पृथक् रूप से विस्तार पूर्वक द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना । एकत्ववितर्क अविचारी अर्थात् हवा रहित घर में रखे हुए दीपक की तरह चित्तविक्षेप रहित स्थिरतापूर्वक किसी एक पदार्थ की पर्यायों का अभेद रूप से चिन्तन करना । सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ती अर्थात् योग निरोध के समय परिणामों के विशेष चढे रहने से यहां से केवली भगवान् पीछे नहीं हटते हैं यह सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ती शुक्लध्यान है । समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती अर्थात् शैलेशी अवस्था को प्राप्त केबली सभी योगों का निरोध कर लेते हैं। अतएव उसकी सारी क्रियाएं बन्द हो जाती हैं। इसलिए इसे समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं। शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। यथा अव्यथ अर्थात् परीषह उपसर्गों से घबरा कर ध्यान से विचलित न होना, असम्मोह अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म गहन विषयों में अथवा देवादिकृत माया में मोहित न होना । विवेक अर्थात् सांसारिक सब संयोगों से आत्मा को भिन्न समझना । व्युत्सर्ग अर्थात् निःसंग रूप से शरीर और उपाधि का त्याग करना । शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं यथा - क्षान्ति-क्षमा अर्थात् क्रोध न करना और उदय में आये हुए क्रोध को दबाना । मुक्ति अर्थात् लोभ न करना तथा उदय में आये हुए लोभ को विफल करना यानी
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