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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ २३१ 0000000 तीन मनोरथों का चिन्तन करता हुआ साधु महानिर्जरा और महापर्यवसान ( प्रशस्त अन्त) वाला होता है यथा - पहले मनोरथ में साधुजी ऐसा विचार करे कि कब मैं थोड़ा या बहुत श्रुत यानी शास्त्रज्ञान पढूँगा। दूसरे मनोरथ में साधुजी यह विचार करे कि कब मैं एकलविहारपडिमा को अङ्गीकार कर विचरूँगा। तीसरे मनोरथ में साधुजी यह चिन्तन करे कि सब के पश्चात् मृत्यु के समय होने वाली संलेखना के द्वारा शरीर और कषायों को कृश करके आहार पानी का त्याग करके पादपोपगमन मरण अङ्गीकार करके जीवन-मरण की इच्छा न करता हुआ संयम का पालन करूँगा । इस प्रकार मन वचन काया से चिन्तन करता हुआ साधु महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। तीन कारणों से श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है यथा- पहले मनोरथ में श्रावकजी यह भावना भावे कि कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का त्याग करूंगा। दूसरे मनोरथ में श्रावकजी यह चिन्तन करे कि कब मैं मुण्डित होकर गृहस्थवास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करूँगा। तीसरे मनोरथ में श्रावकजी यह विचार करे कि कब मैं सब से पीछे मृत्यु के समय होने वाली संलेखना के द्वारा शरीर और कषायों को कृश करके आहार पानी का त्याग करके पादपोपगमन मरण अङ्गीकार करके जीवन मरण की इच्छा न करता हुआ श्रावक व्रत में दृढ़ रहूँगा । इस प्रकार मन वचन काया से चिन्तन करता हुआ श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में साधु और श्रमणोपासक के तीन-तीन मनोरथ बताये हैं। जिसका वर्णन भावार्थ में कर दिया गया है। जो साधक इन तीन मनोरथों का मन, वचन, काया से चिंतन करता है वह महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। सूत्र में दो शब्द आये हैं- महाणिज्जरे, महाफ्ज्जवसाणे । महाणिज्जरे शब्द का अर्थ है - महती निर्जरा (कर्म क्षपण ) जिसके कर्मों की अधिक निर्जरा होती है वह महानिर्जरा वाला कहा जाता है। महापंज्जवसाणे का अर्थ है महा पर्यवसान अर्थात् महत् प्रशस्त अथवा अत्यंत पर्यवसानअंतिम अर्थात् समाधिमरण से यानी कि पुनः मरण नहीं करने से अंतिम है जीवन जिसका, वह महापर्यवसान कहलाता है। संलेखना - जिससे शरीर और कषाय कृश यानी दुर्बल-पतले किये जाते हैं ऐसे तप विशेष को संलेखना कहते हैं। - पादपोपगमन - जैसे कटी हुई वृक्ष की डाली स्वतः कुछ भी हलन चलन नहीं करती इसी प्रकार शरीर की सम्पूर्ण हलन चलन की क्रिया को रोककर कटी हुई वृक्ष की डाली के समान अडोल और अकम्प होकर निश्चल रहना पादपोपगमन संथारा कहलाता है। तिविहे पोग्गल पडिघाए पण्णत्ते तंजहा - परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पहिणिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिहणिज्जा, लोगंते वा पडिहणिज्जा । तिविहे चक्खू Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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