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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000
९. माया - कपट का.सेवन कर के लेना। १०. लोभ - लोलुपता से अच्छी वस्तु अधिक लेना। ११. पूर्व पश्चात् संस्तव - आहारादि लेने के पूर्व या बाद में दाता की प्रशंसा करना। १२. विद्या - चमत्कारिक विद्या का प्रयोग करके लेना। १३. मन्त्र - मन्त्र प्रयोग से आश्चर्य उत्पन्न करके लेना। १४. चूर्ण - चमत्कारिक चूर्ण का प्रयोग कर के लेना। १५. योग - योग के चमत्कार बता कर लेना।
१६. मूल कर्म - गर्भ स्तंभन, गर्भाधान अथवा गर्भपात जैसे पापकारी औषधादि बता कर प्राप्त करना।
ये सोलह दोष साधु से लगते हैं। एषणा के १० दोष की गाथा इस प्रकार है - संकिय १ मक्खिय २ णिक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिय १० एसणदोसा, दस हवंति ॥ १. संकित - दोष की शंका होने पर लेना। २. मक्षित - देते समय हाथ, आहार या भांजन का सचित्त पानी आदि से युक्त होना। ३..निक्षिप्त - सचित्त वस्तु पर रखी हुई अचित्त वस्तु देना। ४. पिहित - सचित्त वस्तु से ढकी हुई अचित्त वस्तु देना। "
५. साहरिय - जिस पात्र में दूषित वस्तु पड़ी हो, उसे अलग करके उसी बरतन से देना और साधु का लेना।
६. दायग - जो दान देने के लिए अयोग्य है, ऐसे बालक, अंधे, गर्भवती (गर्भवती अगर खड़ी हो वह बैठ कर देवे या बैठी हो, वह खड़ी हो कर देवे तो नहीं कल्पता है। जिस स्थिति में हो, उस स्थिति में देवे तो कल्पता है) आदि के हाथ से लेना।
७. उन्मिश्र - मिश्र-कुछ कच्चा और कुछ पका आहासदि लेना। ८. अपरिणत - जिसमें पूर्ण रूप से शस्त्र परिणत न हुआ हो उसे देना व लेना।
९. लिप्त - जिस वस्तु के लेने से हाथ या पात्र में लेप लगे अथवा तुरन्त की लीपी हुई गीली भूमि को लांघते हुए देना और लेना।
१०. छर्दित - नीचे गिराते हुए देना या लेना।
उद्गम के १६ दोष गृहस्थों से लगते हैं । उत्पादना के १६ दोष साधुओं से लगते हैं और एषणा के दस दोष गृहस्थ और साधु दोनों की ओर से लगते हैं । इस प्रकार उद्गम आदि के दोषों से रहित
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