________________
स्थान ३ उद्देशक ४
२१७
.. ६. पाहुडिया - साधु को अच्छा आहार देने के लिए मेहमान अथवा मेहमानदारी के समय को आगे पीछे करना।
७. प्रादुष्करण - अंधेरे में रखी हुई वस्तु को प्रकाश में ला कर देना। ८. क्रीत - साधु के लिए खरीद कर देना। ९. प्रामीत्य - उधार लेकर साधु को देवे। १०. परिवर्तित - साधु के लिए अदल-बदल करके ली हुई वस्तु। ११. अभिहूत - साधु के लिए वस्तु को अन्यत्र अथवा साधु के सामने ले जाकर देना। . १२. उद्भिन्न - बरतन का लेप, छाँदा आदि खोल कर देना।
१३. मालापहत - ऊंचे माला आदि पर, नीचे भूमिगृह में अथवा तिरछे ऐसी जगह वस्तु रखी हो । कि जहां से निसरणी आदि पर चढ़ना पड़े वहाँ से उतार कर देना।
१४. अच्छेद्य - निर्बल से छीन कर देना। .. . १५. अनिसृष्ट - भागीदारी की वस्तु, किसी भागीदार की बिना इच्छा के दी जाय।
.१६. अध्यवपूरक - साधुओं का ग्राम में आगमन सुन कर बनते हुए भोजन में कुछ सामग्री बढ़ाना।
उद्गम के ये सोलह दोष, गृहस्थ-दाता-से लगते हैं। उत्पादना के १६ दोष इस प्रकार है - धाई १ दूइ २ णिमित्ते ३, आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा य६। । कोहे ७ माणे ८ माया, ९ लोभे य हवंति दस एए॥ पुव्विं पच्छा संथव ११, विज्जा १२ मंते य १३ चुण्ण १४ जोगे य १५ । उप्पायणा य दोसा, सोलसमे मूलकम्मे १६ य ॥
१. धात्रीकर्म - बच्चे की साल-संभाल करके अथवा धाय की नियुक्ति करवा कर आहारादि लेना। . २. दूतीकर्म - एक का संदेश दूसरे को पहुंचा कर आहार लेना। ३. निमित्त - भूत, भविष्य और वर्तमान के शुभाशुभ निमित्त बता कर लेना। ४. आजीव- अपनी जाति अथवा कुल आदि बता कर लेना। .... ५. वनीपक - दीनता प्रकट करके लेना। . ६. चिकित्सा - औषधि करके या बता कर लेना। ७. क्रोध - क्रोध करके लेना। ८. मान - अभिमान पूर्वक लेना।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org