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________________ स्थान ३ उद्देशक २ करने योग्य, अभेदय यानी अनेक टुकड़े न करने योग्य है। अदाहय हैं यानी जलाए नहीं जा सकते हैं। ग्रा यानी हाथ आदि द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं अनर्द्धा यानी इनके आधे भाग नहीं किये जा सकते हैं। ये अमध्य हैं यानी इनके तीन विभाग नहीं हो सकते हैं और ये अप्रदेशी हैं। इसीलिए समय, प्रदेश और परमाणु ये तीनों अविभाज्य हैं अर्थात् इनका विभाग नहीं किया जा सकता है। विवेचन - अग्निकायिक और वायुकायिक जीव गति की अपेक्षा त्रस कहे गये हैं और बेइन्द्रिय आदि त्रस नामकर्म के उदय से त्रस कहे गये हैं। - १. समय २. प्रदेश और ३. परमाणु । . १. समय - काल के अत्यंत सूक्ष्म अंश को जिसका विभाग न हो सके, समय कहते हैं। २. प्रदेश - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय स्कन्ध या देश से मिले हुए अति सूक्ष्म निरवयव अंश को प्रदेश कहते हैं। ३. परमाणु - स्कन्ध के देश से अलग हुए निरंश पुद्गल को परमाणु कहते हैं । इन तीनों का छेदन, भेदन, दहन, ग्रहण नहीं हो सकता । दो विभाग न होने से ये अविभागी हैं। तीन विभाग न हो सकने से ये मध्य रहित हैं । ये निरवयव हैं इसलिए इनका विभाग भी संभव I नहीं हैं। तीन अच्छेद्य कहे हैं अज्जो ति समणे भगवं महावीरे गोयमाई समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासीकिंभया पाणा ? समणाउसो ! गोयमाई समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीरं उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - णो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एयमट्ठे जाणामो वा पासामो वा, तं जड़ णं देवाणुप्पिया ! एयमट्ठे णो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमट्ठ जाणित्तए । अज्जो ति समणे भगवं महावीरे गोयमाई समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी - दुक्खभया पाणा समणाउसो ! से णं भंते ! दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमाएण । से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जइ ? अपमाएणं ॥ ८४ ॥ - कठिन शब्दार्थ - आमंतेत्ता - आमंत्रित करके, उवसंकर्मति आये, किंभया - किसका भय है ?, परिकहित्तए - फरमाने में, गिलायंति - कष्ट होता हो, अंतिए - पास से, जाणित्तए - जानना, केण - किसने, कडे पैदा किया है, पमाएण प्रमाद से, वेइज्जइ दूर किया जाता है। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित करके इस प्रकार कहा कि हे आर्यो ! हे आयुष्मन् ! श्रमणो ! प्राणियों को किसका भय है ? भगवान् के इन वचनों को सुन कर गौतम स्वामी आदि श्रमण निर्ग्रन्थ, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी Jain Education International - १८३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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