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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 गोस्तनाकार है इस प्रकार आठ प्रदेशात्मक चौरस रुचक है वहाँ से दिशा और विदिशा की उत्पत्ति होती है जिसकी स्थापना इस प्रकार है -
. इसमें पूर्व आदि चारों महादिशाएं द्वि प्रदेश 0 वाली आदि में और फिर दो प्रदेश की वृद्धि से होती है और अनदिशा (विदिशा) तो एक प्रदेश वाली और अनुत्तर यानी प्रदेश की वृद्धि से रहित एक प्रदेश वाली है। ऊर्ध्व दिशा और अधोदिशा प्रारंभ में चार प्रदेश युक्त होती है। __पूर्व आदि चार महादिशाएं शकट-गाड़ी के उर्द्धि (ऊंघ) के आकार से संस्थित है ईशानादि चार विदिशाएं मुक्तावली-मोती के हार की तरह संस्थित-रही हुई है और ऊर्ध्व तथा अधोदिशा ये दो दिशाएं रुचकाकार संस्थित है। इन दश दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं
१. ऐन्द्री (पूर्व) २. आग्नेयी (पूर्व दक्षिण कोण) ३. यमा (दक्षिण) ४. नैऋती (दक्षिण पश्चिम कोण) ५. वारुणी (पश्चिम) ६. वायव्य (पश्चिम उत्तर कोण) ७. सोमा (उत्तर) ८. ईशान (उत्तर पूर्व कोण) ९. विमला (ऊर्ध्व) १०. तमा (अधो)।
'भाव दिशाएं अठारह प्रकार की होती है - १. पृथ्वी २. जल ३. अग्नि ४. वायु ५. मूलबीज ६. स्कंध बीज ७. अग्रबीज ८. पर्वबीज ९. बेइन्द्रिय १०. तेइन्द्रिय ११. चउरेन्द्रिय १२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच १३. नारकी १४. देव १५. सम्मूर्च्छिमा मनुष्य १६. कर्म भूमिज मनुष्य १७. अकर्म भूमिज मनुष्य १८. अन्तरद्वीपज मनुष्य। ये १८ संसारी जीवों की भावदिशाएं कही है जिनमें जीवों का गमनागमन होता है।
तिविहा तसा पण्णता तंजहा - तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तसा पाणा, तिविहा थावरा पण्णत्ता तंजहा - पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाइया। तओ अच्छेज्जापण्णत्तातंजहा-समए पएसे परमाणू।एवंअभेज्जाअडज्झाअगिज्झाअणड्डा अमज्झा अपएसा। तओ अविभाइया पण्णत्ता तंजहा - समए पएसे परमाणू॥८३॥
कठिन शब्दार्थ - उराला - स्थूल, पएसे - प्रदेश, अच्छेज्जा - अच्छेदय, अभेजा - अभेदय, अडज्झा - अदाह्य, अगिज्झा, - अग्राह्य, अणड्डा - अनर्धा, अमज्झा - अमध्य, अपएसा - अप्रदेश, अविभाइया - अविभाज्य।
भावार्थ - त्रसंजीव तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा - अग्निकायिक जीव वायुकायिक जीव और स्थूल त्रस प्राणी बेइन्द्रिय आदि। स्थावर तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा - पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक। समय, प्रदेश और परमाणु ये तीन शस्त्र आदि द्वारा अच्छेदय यानी दो टुकड़े न
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