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________________ श्री स्थानांग सूत्र 10000 कह कर, धर्म का बोध देकर तथा धर्म के भेद प्रभेद समझा कर उनको धर्म में स्थिर कर दे तो वह माता-पिता का प्रत्युपकार कर सकता है अर्थात् माता-पिता के ऋण से उऋण हो सकता है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! कोई बड़ा धनवान् सेठ किसी दरिद्री पुरुष को खूब द्रव्य देकर उसे उन्नत और.. धनवान् बना देवे। इसके बाद उन्नत दशा को प्राप्त हुआ वह दरिद्री पुरुष उसी समय अथवा पीछे विपुल भोग सामग्री से युक्त होकर विचरे। इसके बाद वह सेठ किसी समय लाभान्तराय कर्म के उदय से दरिद्री बन कर उस दरिद्री पुरुष के पास जिसको कि उसने धनवान् बनाया है, शीघ्र आवे। तब वह दरिद्री पुरुष उस पालन पोषण कर धनवान् बनाने वाले पुरुष को सर्वस्व यानी अपने पास का सारा धन देवे तो भी वह उसके उपकार का बदला नहीं चुका सकता है। किन्तु यदि वह उस अपने स्वामी को केवलि - भाषित धर्म कह कर, धर्म का बोध देकर तथा धर्म के भेद प्रभेद समझा कर उसे धर्म में स्थापित कर दे तो वह उस स्वामी का प्रत्युपकार कर सकता है अर्थात् उसके ऋण से उऋण हो सकता है। कोई पुरुष तथारूप अर्थात् साधु के वेष और गुणों से युक्त श्रमण माहन यानी साधु महात्मा के पास आर्य धर्म सम्बन्धी एक भी सुवचन सुन कर और हृदय में धारण करके यहाँ का आयुष्य पूर्ण करके काल के समय काल करके किसी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होवे। इसके बाद वह देव, अपने धर्माचार्य का प्रत्युपकार करने की भावना से उस धर्माचार्य को दुर्भिक्ष वाले देश से सुभिक्ष वाले देश में: लाकर रख देवें, यदि जङ्गल में होवे तो जङ्गल से निष्कान्तार कर देवे यानी वसति (गाँव-नगर) में लाकर रख देवे अथवा दीर्घ काल तक रहने वाले रोग और आतङ्क से उनका शरीर पीड़ित हो तो उस . रोग का निवारण कर दे तो भी वह उस धर्माचार्य के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता है किन्तु यदि कदाचित् कर्मोदय से वे धर्म से पतित हो गये हों तो केवलि-भाषित धर्म से भ्रष्ट बने हुए उस धर्माचार्य को केवलि-भाषित धर्म कह कर यावत् धर्म का बोध देकर फिर से धर्म में स्थापित कर दे तो वह उस धर्माचार्य का प्रत्युपकार कर सकता है अर्थात् ऋण से मुक्त हो सकता है। विवेचन - तीन का प्रत्युपकार दुःशक्य है- १. माता-पिता २. भर्त्ता (स्वामी) और ३. धर्माचार्य, इन तीनों का प्रत्युपकार अर्थात् उपकार का बदला चुकाना दुःशक्य है। इसका स्पष्टीकरण भावार्थ में उदाहरण सहित कर दिया गया है। शरीर में लम्बे समय तक रहने वाले कोढ आदि 'रोग' कहलाते हैं और तत्काल प्राण विनाश कर देने वाले शूल आदि 'आतङ्क' कहलाते हैं। तिर्हि ठाणेहिं संपणे अणगारे अणाइयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसार कंतारं वीड़वएज्जा तंजहा - अणियाणयाए दिट्ठिसंपण्णयाए जोगवाहियाए । तिविहा ओसप्पिणी पण्णत्ता तंजहा - उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा एवं छप्पि समाओ भाणियव्वाओ जाव दुसमदुसमा । तिविहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता तंजहा - उक्कोसा १६० 00 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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