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________________ नैरयिक नपुंसक, तिर्यञ्च योनि के नपुंसक और मनुष्य गति के नपुंसक । तिर्यञ्च योनि के जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं । यथा स्त्री, पुरुष और नपुंसक । विवेचन - अण्डे से उत्पन्न होने वाले जीव 'अंडज' कहलाते हैं। पोतज - जो जरायु वर्जित होने से वस्त्र की थैली सहित उत्पन्न होते हैं वे 'पोतज' कहलाते हैं और जो गर्भ रहित उत्पन्न होते हैं वे 'सम्मूर्च्छिम' कहलाते हैं। उरपरिसर्प - उरस अर्थात् छाती के बल से चलने वाले 'उरपरिसर्प' कहलाते हैं जैसे सर्प आदि । और जो दोनों बाहु (भुजा) के बल से चलने वाले हैं वे 'भुजपरिसर्प' कहलाते हैं जैसे चूहा, नौलिया (नेवला) आदि । मनुष्य गति के पुरुष तीन प्रकार के कहे हैं ३. अन्तरद्वीपिक । स्थान ३ उद्देशक १ Jain Education International - - १५३ १. कर्म भूमिज - कृषि (खेती) वाणिज्य, तप, संयम, अनुष्ठान आदि कर्म प्रधान भूमि को कर्म भूमि कहते हैं। पांच भरत, पांच ऐरावत, पांच महाविदेह क्षेत्र ये १५ क्षेत्र कर्मभूमि हैं । कर्म भूमि में उत्पन्न मनुष्य कर्म भूमिज कहलाते हैं। ये असि ( तलवार आदि शस्त्र) मसि (स्याही आदि से लेखन आदि कार्य) और कृषि (खेती) इन तीन कर्मों द्वारा निर्वाह करते हैं १. कर्म भूमिज २. अकर्म भूमिज और २. अकर्म भूमिज - कृषि (खेती) वाणिज्य, तप, संयम अनुष्ठान आदि कर्म (कार्य) जहां नहीं होते हैं उसे अकर्म भूमि कहते हैं। पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु, ये तीस क्षेत्र अकर्म भूमि हैं। इन क्षेत्रों में उत्पन्न मनुष्य अकर्मभूमिज कहलाते हैं। यहाँ अकि, मसि और कृषि का व्यापार नहीं होता। दस प्रकार के वृक्षों से अकर्म भूमिज मनुष्य अपना जीवन निर्वाह करते हैं। कर्म न करने से एवं वृक्षों से निर्वाह करने से इन क्षेत्रों को अकर्म भूमि ( भोग भूमि) और यहाँ के मनुष्यों को अकर्मभूमिज ( भोग भूमिज) कहते हैं । यहाँ स्त्री पुरुष जोड़े (युगल) से जन्म लेते हैं जिन्हें युगलिया (युगलिक) कहते हैं। ३. अन्तर द्वीपिक लवण समुद्र के बीच में होने से अथवा परस्पर द्वीप में अन्तर होने से इन्हें अन्तरद्वीप कहते हैं । अन्तद्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर द्वीपिक कहलाते हैं। अकर्म भूमि की तरह इन अन्तरद्वीपों में भी कृषि, वाणिज्य आदि किसी तरह के कर्म (कार्य) नहीं होते। ये भी दस वृक्षों से अपना निर्वाह करते है । यहाँ भी स्त्री पुरुष जोडे से उत्पन्न होते हैं । • सम्मूच्छिम नपुंसक ही होते हैं। इसलिए सूत्र में इनके स्त्री आदि तीन भेद नहीं बतलाये गये हैं। इसी ठाणांग सूत्र के दसवें ठाणे में 'मतंगा, भृतांगा' आदि के लिए 'दसविहा रुक्खा' शब्द दिया है जिसका अर्थ है दस प्रकार के वृक्ष । इसलिए इन्हें कल्पवृक्ष कहना उचित नहीं है। अकर्मभूमि और अन्तरद्वीप के युगलिकों का जीवन निर्वाह इन दस प्रकार के वृक्षों से होता है। इनका विस्तृत विवेचन दसवें ठाणे में किया जाएगा। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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