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तइयं ठाणं तृतीय स्थान
प्रथम उद्देशक द्वितीय स्थानक के बाद क्रम से तृतीय स्थानक आता है। तीसरे स्थानक में चार अनुयोग के द्वार रूप चार उद्देशक कहे हैं। इसके प्रथम उद्देशक में दूसरे स्थान के अंतिम चौथे उद्देशक की तरह जीवादि पर्याय का कथन किया जाता है। जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
तओ इंदा पण्णत्ता तंजहा - णामिंदे ठवणिंदे दव्विंदे। तओ इंदा पण्णत्ता तंजहा - णाणिंदे दंसणिंदे चरित्तिदे। तओ इंदा पण्णत्ता तंजहा - देविंदे असुरिंदे मणुस्सिंदे॥५५॥ - कठिन शब्दार्थ - तओ - तीन, इंदा - इन्द्र, णामिंदे - नाम इन्द्र, ठवणिंदे - स्थापना इन्द्र, दविंदे - द्रव्येन्द्र, णाणिः - ज्ञानेन्द्र, दंसणिंदे - दर्शनेन्द्र, चरित्तिंदे - चारित्रेन्द्र, देविंदे- देवेन्द्र, असुरिंदे - असुरेन्द्र, मणुस्सिंदे - मनुष्येन्द्र । .. भावार्थ - श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने तीन प्रकार के इन्द्र फरमाये हैं यथा - किसी का नाम इन्द्र रख देना सो नाम इन्द्र, किसी वस्तु में इन्द्र की स्थापना कर देना सो स्थापना इन्द्र और जो जीव आगामी काल में इन्द्र होगा वह द्रव्येन्द्र । इन्द्र तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा - ज्ञानेन्द्रकेवलज्ञानी, दर्शनेन्द्र-क्षायिक सम्यग्दर्शनी और चारित्रेन्द्र-यथाख्यात चारित्र वाला। और भी इन्द्र तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा - देवेन्द्र यानी ज्योतिषी और वैमानिक देवों का इन्द्र, असुरेन्द्र यानी भवनपति और वाणव्यन्तरों का इन्द्र और मनुष्येन्द्र यानी चक्रवर्ती आदि। . विवेचन - संक्षिप्त में निक्षेप के चार भेद हैं यथा - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। नाम की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने लिखा है -
यद वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम्। पर्यायानभिधेयञ्च नाम याद्ऋच्छिकं च तथा॥
अर्थ - अर्थ की अपेक्षा रखे बिना अपनी इच्छानुसार किसी भी वस्तु की कुछ संज्ञा रख देना नाम कहलाता है। किसी का नाम रखने पर उसका 'पर्यायवाची' शब्द उसके लिए प्रयुक्त नहीं होता है। जैसे किसी ग्वाले का नाम रख दिया इन्द्रचन्द। उसमें इन्द्र पणा नहीं है। किन्तु माता-पिता आदि की इच्छा अनुसार उसका नाम रख दिया है। इन्द्र का पर्यायवाची 'शक' है किन्तु उसको शक्रचन्द
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