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श्री स्थानांग सूत्र
चार देवलोक के देव मन से विषय सेवन करने वाले होते हैं। नवग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों में परिचारणा (विषय सेवन) नहीं होती।
चय - कषाय आदि से परिणत जीव को जिन कर्म पुद्गलों का उपादान-ग्रहण होता है, उसे चय कहते हैं।
उपचय - ग्रहण किये हुए कर्म के अबाधाकाल (जब तक उदय में न आवे वह) को छोड़ कर ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूप निषेक (कर्म दल की रचना विशेष) को 'उपचय' कहते हैं। प्रथम स्थिति में जीव बहुत कर्मदलिक की रचना करता है इसके बाद दूसरी स्थिति में विशेषहीन निषेक करता है यावत् उत्कृष्ट स्थिति में विशेषहीन निषेक करता है।
बंधन - ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूप से रचित निषेक को पुनः कषाय की परिणति विशेष से निकाचित दृढ़ बंधन रूप जानना।
उदीरणा - उदय को प्राप्त नहीं हुए कर्म को करण (जीव वीर्य) से खींच कर उदय में लाना।
वेदन - अनुभव अर्थात् कर्म को भोगना। निर्जरा - कर्म का अकर्म रूप होना अर्थात् कर्म का नाश होना।
॥इति चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
॥ इति द्वितीय स्थान समाप्त ।। ।
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