SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री स्थानांग सूत्र देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । माहिंदे कप्पे देवाणं जहणणेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । दोसु कप्पेसु कप्पत्थियाओ पण्णत्ताओ तंजा - सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । दोसु कप्पेसु देवा तेउलेस्सा पण्णत्ता तंजहा सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पण्णत्ता तंजहा- सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पण्णत्ता तंजहा सणकुमारे चेव माहिंदे चेव । दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा पण्णत्ता तंजहा बंभलोए चेव लंत चेव । दोसु कप्पे देवा सहपरियारगा पण्णत्ता तंजहा - महासुक्के चेव सहस्सारे चेव । दो इंदा मणपरियारगा पण्णत्ता तंजहा - पाणए चेव अच्चुए चेव । जीवाणं दुट्ठाण णिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा तंजा - तसकाय णिव्वत्तिए चेव थांवरकाय णिव्वत्तिए चेव । एवं उवचिणिंसु वा उवचिणंति वा उवचिणिस्संति वा । बंधिंसु वा बंधंति वा बंधिस्संति वा । उदीरिंसु वा उदीरेंति वा उदीरिस्संति वा । वेदिंसु वा वेदेति वा वेदिस्संति वा । णिज्जरिंसु वा णिज्जरिति वा णिज्जरिस्संति वा । दुपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता, दुपए सोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता एवं जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ।। ५४ ॥ १३६ Jain Education International चउत्थो उद्देसो ॥ दुट्ठाणं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ - असुरिंदवज्जियाणं - असुरकुमार देवों के दो इन्द्रों को छोड़ कर, ठिई - स्थिति, देसूणाई - देशोन, उक्कोसेणं - उत्कृष्ट, जहण्णेणं - जघन्य, साइरेगाई - सातिरेक-साधिक, कप्पेसु - कल्पों में- देवलोकों में, कप्पत्थियाओ कल्पस्त्रियाँ, कायपरियारगा - काय परिचारक, फासपरियारगा - स्पर्श परिचारक, रूवपरियारगा रूप परिचारक, सद्दपरियारगा - शब्द परिचारक, मणपरियारगा - मन परिचारक, णिव्वत्तिए - निर्वर्तित, चिणिंसु इकट्ठे किये हैं, चिणंति - इकट्ठे करते हैं, चिणिस्संति- इकट्ठे करेंगे, उवचिणिंसु - कर्मों का उपचय किया है, उवचिणंति - उपचय करते हैं, उवचिणिस्संति- उपचय करेंगे, उदीरिंसु उदीरणा की है, वेदिंसु - वेदन किया है, णिज्जरिंसु - निर्जरा की है, दुपएसिया- द्वि प्रदेशी, खंधा स्कन्ध, दुगुणलुक्खा - द्विगुण रूक्ष । भावार्थ - दस जाति के भवनवासी देवों में से असुरकुमार देवों के चमर और बली इन दो इन्द्रों को छोड़ कर शेष सब भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति देशोन दो पल्योपम की कही गई है। सौधर्म नामक पहले देवलोक में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की कही गई है। ईशान नामक दूसरे देवलोक में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक कही गई है। सनत्कुमार For Personal & Private Use Only - - - www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy