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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 बंध कहा गया है यथा - रागबन्ध और द्वेषबन्ध। जीव दो स्थानों से पापकर्म बाँधते हैं यथा राग से
और द्वेष से। जीव दो स्थानों से पाप कर्म की उदीरणा करते हैं यथा - आभ्युपगमिकी यानी अपनी इच्छा से तपश्चरण, केशलोच आदि वेदना को सहन करने से और औपक्रमिकी यानी शरीर में . उत्पन्न हुई ज्वर आदि की वेदना को भोगने से। इसी प्रकार उपरोक्त दो कारणों से वेदना वेदते हैं। इसी प्रकार आभ्युपगमिकी वेदना और औपक्रमिकी वेदना इन दो कारणों से जीव कर्मों की निर्जरा, करते हैं।
विवेचन - वस्तु के समूह को राशि कहते हैं। राशि दो कही गयी है। जीवराशि के ५६३ भेद हैं और अजीव राशि के ५६० भेद हैं। .
कषाय के वश हो कर जीव कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करे तथा आत्मा के प्रदेश और कर्म पुद्गल एक साथ क्षीर-नीर के समान मिले तथा लोह पिण्ड और अग्नि के समान एक मेक हो कर बन्धे, उसे बन्ध कहते हैं। बन्ध का मुख्य कारण कषाय है। कषाय के दो भेद हैं-राग (माया और लोभ) और द्वेष (क्रोध और मान)। राग और द्वेष कर्म बंध के बीज रूप है इसीलिए बंध दो प्रकार का कहा है। योग के निमित्त से प्रकृति बंध और प्रदेश बंध होता है। नबकि कषाय के निमित्त से . स्थिति बंध और अनुभाग बंध होता है।
शंका - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कर्म बंध के हेतु कहे हैं। फिर यहाँ कषाय को ही कर्म बंध का कारण क्यों कहा है ?
समाधान - पाप कर्मों के बंधन में कषाय की प्रधानता बताने के लिए ही कर्म बंध का कारण कषाय कहा गया है। कषाय, स्थिति बंध और अनुभाग बंध का कारण है और अत्यंत अनर्थ करने वाला होने से कषाय को मुख्य कहा है कहा भी है -
को दुक्खं पावेजा, कस्स व सोक्खेहिं विम्हओ होजा? को वा न लहेज मोक्खं ? रागहोसा जइ न होजा॥
अर्थ - यदि रागद्वेष नहीं होते तो कौन दुःख पाता ? अथवा कौन सुख में विस्मय होता ? अथवा मोक्ष को कौन नहीं प्राप्त करता यानी सभी मोक्ष को प्राप्त कर लेते किन्तु राग और द्वेष ही बाधक है।
___ उदय का अवसर आये बिना कर्मों को उदय में लाना, उदीरणा कहलाती है। उदीरणा दो प्रकार की होती है - १. आभ्युपगमिकी - अपनी इच्छा से अंगीकार करने से अथवा अंगीकार करने में होने वाली उदीरणा आभ्युपगमिकी है जैसे केश लोच, तपस्या आदि से वेदना सहन करने से उदीरणा होती है २. औपक्रमिकी - उपक्रम से-कर्म के उदीरण कारण से होने वाली अथवा उन कर्मों के उदीरण में हुई उदीरणा औपक्रमिकी है जैसे ज्वर, अतिसार आदि व्याधियों के उत्पन्न होने से होने वाली वेदना। इन दोनों कारणों से जीव कर्मों की निर्जरा भी करता है।
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