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स्थान २ उद्देशक ३
की प्रतिपदा को १४ दत्ति आहार लेना कल्पता है फिर प्रतिदिन एक-एक दत्ति घटाता जाए। इस प्रकार चौदस के दिन एक दत्ति आहार लेना कल्पता है और अमावस्या के दिन उपवास करना कल्पता है। इस प्रकार यह यवमध्य चन्द्र प्रतिमा का स्वरूप है। वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा का स्वरूप इससे विपरीत है। यह प्रतिमा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ की जाती है। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को पन्द्रह दत्ति आहार लेवे। फिर क्रमशः प्रतिदिन एक-एक घटाते हुए अमावस्या को एक दत्ति लेवे। फिर शुक्लपक्ष.की प्रतिपदा को दो दत्ति आहार लेवे फिर प्रतिदिन एक-एक बढ़ाते हुए चौदस के दिन १५ दत्ति आहार लेवे। फिर पूर्णिमा के दिन उपवास करें। यह वज्र मध्य चन्द्र प्रतिमा का स्वरूप है।
( व्यवहार सूत्र १० वां उद्देशक) सामायिक दो प्रकार की कही गई है यथा- अगार सामायिक यानी श्रावक की मर्यादित काल की सामायिक और अनगार सामायिक यानी साधु की यावज्जीवन की सामायिक।
विवेचन - मोक्ष के लिए किया जाने वाला ज्ञानादि आसेवन रूप अनुष्ठान विशेष आचार कहलाता है। अथवा गुण वृद्धि के लिए किया जाने वाला आचरण आचार कहलाता है। अथवा पूर्व पुरुषों से आचरित ज्ञानादि आसेवन विधि को आचार कहते हैं। दूसरा स्थान होने से सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में आचार के दो-दो भेद किये हैं। समुच्चय में आचार के पांच भेद होते हैं - .१. ज्ञानाचार २. दर्शनाचार ३. चारित्राचार ४. तप आचार और वीर्याचार।
१. ज्ञानाचार - सम्यक् तत्त्व का ज्ञान कराने के कारण भूत श्रुतज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है। ज्ञानाचार के आठ भेद हैं - १. कालाचार - शास्त्र में जिस समय जो सूत्र पढने की आज्ञा है उस समय ही उसे पढना। २. विनयाचार - ज्ञानदाता, गुरु का विनय करना ३. बहुमानाचारज्ञानी और गुरु के प्रति हृदय में भक्ति और श्रद्धा भाव रखना ४. उपधानाचार - ज्ञान सीखते हुए यथाशक्ति तप करना ५. अनिह्वाचार - ज्ञान पढाने वाले गुरु का नाम नहीं छिपाना। ६. व्यञ्जनाचारसूत्र के पाठ का शुद्ध उच्चारण करना ७. अर्थाचार - सूत्र का शुद्ध एवं सत्य अर्थ करना। ८. तदुभयाचार - सूत्र और अर्थ (दोनों) को शुद्ध पढ़ना और समझना।
२. दर्शनाचार - दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व का निःशंकितादि रूप से शुद्ध आराधना करना दर्शनाचार है। दर्शनाचार के आठ भेद हैं - १. निःशंकित - वीतराग सर्वज्ञ के वचनों में संदेह नहीं करना। २. निःकांक्षित - परदर्शन (मिथ्यामत) की इच्छा नहीं करना ३. निर्विचिकित्सा - धर्म क्रिया के फल के विषय में सन्देह नहीं करना, साधु साध्वी के शरीर और वस्त्रों को मलिन देखकर उनसे
घृणा नहीं करना। क्योंकि यह साधु-साध्वी का त्यागवृत्ति रूप आचार है। ४. अमूदृष्टि - पाखण्डियों ' (मिथ्यामत) का आडम्बर देख कर उससे मोहित नहीं होना ५. उपहा - गुणी पुरुषों को देखकर
उनके गुणों की प्रशंसा करना तथा स्वयं भी उन गुणों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना
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