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अध्ययन १ उद्देशक ९
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साधु को उद्गम के १६, उत्पादन के १६ और एषणा के १० इन ४२ दोषों को टाल कर निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा मंसं वा मच्छं वा भज्जिजमाणं पेहाए तेल्लपूययं वा आएसाए उवक्खडिजमाणं पेहाए णो खद्धं-खद्धं उवसंकमित्तु ओभासिज्जा णण्णत्थ गिलाणणीसाए॥
कठिन शब्दार्थ - भजिजमाणं - भूजा जाता हुआ, तेल्लपूययं - तेल के पूड़े, आएसाए - पाहुनों (अतिथियों) के लिए, उवक्खडिजमाणं - बनाये जाते हुए, उवसंकमित्तुपास जाकर, णो ओभासिज्जा - याचना न करे, गिलाणणीसाए - रोगी साधु के लिए।
भावार्थ - गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी मेहमानों के लिए मांस या मत्स्य को पूँजा जाता हुआ देखकर अथवा तेल के पूर्व (पूड़ियाँ आदि) बनते हुए देख कर वह शीघ्रता से वहाँ जाकर ऐसे आहार की याचना न करे। यदि बीमार साधु के लिए अति आवश्यक हो तो याचना कर सकता है। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपवाद मार्ग का कथन किया है। अतिथि के लिए बनाए .. हुए आहार में से उसके भोजन करने के पूर्व नहीं लाना यह उत्सर्ग मार्ग है परन्तु बीमार साधु के लिए आवश्यकता पड़ने पर अतिथि के भोजन करने से पहले भी आहार लाना अपवाद मार्ग है। यहाँ मूल पाठ में तेल के पूडों के साथ मांस एवं मत्स्य शब्द का प्रयोग हुआ है, उन शब्दों का आशय इस प्रकार हैं - मांसाहारी उच्च कुलों में मांसाहार बनाने के बर्तन बिल्कुल अलग होने से साधु को उन कुलों में भिक्षाचरी के लिए जाने का साधारणतया निषेध नहीं है। तथापि मांस, मत्स्य एवं तेल के पूए पक रहे हों, वहाँ रोगी साधु के सिवाय साधुओं के लिए आहार लाने का जो निषेध किया गया है, उसका कारण सरस आहार की आसक्ति की दृष्टि से एवं जीमनवार जैसी स्थिति होने के कारण किया गया है। रोगी साधु के लिए भी मांसाहार वाला भोजन ग्रहण नहीं किया जाता है। पूर आदि सरस एवं मिष्ठान्न भोजन को देख कर या सुन कर वहाँ जाने पर साधु की भोजन के प्रति आसक्ति देखी जाती है, इससे प्रवचन की लघुता लगती है, इत्यादि कारणों से नीरोग साधुओं के लिए वहाँ से आहार ग्रहण का निषेध किया गया है। रोगी साधु के लिए कारण बता कर लाने से प्रवचन की लघुता नहीं होने से रोगी के लिए निषेध नहीं किया है। ऐसी स्थिति नहीं होने पर
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