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अध्ययन १ उद्देशक ९
७९ .00000000000000000000000000000000000••••••••••••••••••••• दाने, दानों से मिश्रित कुक्कुस (छानस), दानों वाली रोटी, चावल अथवा चावलों का ताजा आटा, तिल या तिल का आटा, तिल पापड़ी तथा इसी प्रकार की अन्य कोई वस्तु जो कच्ची और शस्त्र परिणत न हुई हो, तो उसे अप्रासुक और अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आए हुए 'कणं वा कणकुंडगं वा कणपूयलियं वा' का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - जहाँ पर चावल (शालि) का वपन होता है। वहाँ लोग हरी शालि को (छिलके सहित चावल को) कूट करके इसमें से कणकी (चावल के टुकड़े) को अलग करके इसकी रोटी बनाते हैं। अतः यहाँ पर 'कणं' शब्द से 'हरे चावल के कण' ग्रहण किये हैं - जो कच्चे होने से असंख्यजीवी होते हैं। इसलिए इसकी 'अर्धपरिपक्व रोटी' (कणपूयलियं) भी पूर्ण अचित्त नहीं होती है - फोंतरे (छिलके) भी पूर्ण अचित्त नहीं होते हैं - इसलिए उनका ताजा आटा (कणकुंडगं) भी अचित्त नहीं होता है। अतः "कणं' वा......इन सभी में सचित्त की शंका से ग्रहण का निषेध है। ___ अहिंसा महाव्रत के निर्दोष पालन के लिये यह आवश्यक है कि साधु अप्रासुक और अनेषणीय फल, सब्जी या अन्य कोई वस्तु ग्रहण नहीं करे। लहसुन आदि जमीकन्द का शाकं, चटनी आदि चाहे शस्त्र परिणत होकर अचित्त हो गयी हो तो भी व्यवहार की दृष्टि से उसे साधु-साध्वी को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ।। ४८॥ भावार्थ - यह संयमशील साधु-साध्वियों का सम्पूर्ण आचार है। __
॥अट्ठमो उद्देसो समत्तो॥. ॥प्रथम अध्ययन का आठवां उद्देशक समाप्त॥
प्रथम अध्ययन का नवा उद्देशक - इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्डा भवंति - गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ - जे इमे भवंति समणा भगवंता, सीलमंता, वयमंता, गुणमंता, संजया, संवुड्डा,
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