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________________ ७७ अध्ययन १ उद्देशक ८ 000000000000000000000000................................. 'णण्णत्थ......तालमत्थएण वा' सूत्र पाठ का आशय इस प्रकार समझना चाहिये। ये अग्रजात आदि वही पर उत्पन्न हुए समझना चाहिए, अन्य कलम आदि लगाए हुए नहीं समझना चाहिए। टीकाकार ने इसके दो अर्थ किये हैं - १.अग्र आदि से अन्यत्र प्ररोहित (उगे हुए) नहीं है, किन्तु उसी अग्र आदि में उत्पन्न हुए हैं ऐसे कंदली के मध्यवर्ती गर्भादि २. अथवा कंदली मस्तक के सरीखा अन्य भी जो काटने के तुरन्त बाद नष्ट हो जाता है। उस प्रकार के तक्कली मस्तक आदि कच्चे हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस सूत्र में बताए हुए पाँचों नाम 'वलय वनस्पति' के हैं। जिनके ऊपर की सूई (सूचि) के नष्ट होने से यह वृक्ष भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार के 'तक्कली' आदि वृक्षों के जो मस्तक भाग होते हैं उनके तोड़ने से संख्यात-जीवी होने के कारण वे अचित्त हो जाते हैं। इसलिए इन पाँच वृक्षों को छोड़कर बाकी वनस्पतियों का अशस्त्र परिणत होने से निषेध किया है। यहाँ पर 'केला' का नामोल्लेख भी नहीं है। भगवती सूत्र शतक २२ को देखते हुए केला का फल 'बहुबीजी' वाला लगता है - इसलिए इस (केले) के खण्ड भी ग्रहण करना संभव नहीं लगता है। ___से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा - उच्छु वा, काणगं वा, अंगारियं वा, सम्मिस्सं विगदूमियं वित्तगं वा, कंदली ऊसुगं वा, अण्णयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहिज्जा। कठिन शब्दार्थ - उच्छु - ईख, काणगं - सछिद्र वनस्पति, अंगारियं - जिसका वर्ण बदल. गया हो, सम्मिस्सं - फटी हुई छाल वाला, विगदुमियं - श्रृंगाल आदि द्वारा कुछ खाया हुआ, वित्तर्ग - बैंत का अग्र भाग, कंदलीऊसुर्ग - कंदली गर्भ। - भावार्थ - भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी ईख, छेदवाली ईख, रोग के कारण जिसका वर्ण बदल गया है, फटी छाल (छिलके) वाला एवं श्रृगालादि के द्वारा कुछ खाया हुआ फल अथवा बँत का अग्रभाग, कंदली का गर्भ (मध्य भाग) तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएं जो सचित्त हों, शस्त्र परिणत न हुई हों तो उन्हें अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा - लसुणं वा, लसुणपत्तं वा, लसुणणाल वा, लसुणकंदं वा, लसुणचोयं वा, अण्णयर वा तहप्पगारं आम असत्थपरिणय जाव णो पडिगाहिज्जा।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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