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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
अशनादि आहार दीवार पर, खंभे पर, मचान पर, माले पर, प्रासाद पर, हवेली की छत पर, ऊँची मंजिल पर या इसी तरह के किसी अन्य ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है और वहाँ से लाकर गृहस्थ देने लगे तो ऐसे आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर साधु ग्रहण नहीं करे क्योंकि केवली भगवान् ने इसे कर्म बंध का कारण कहा है। __ असंयमी गृहस्थ साधु के निमित्त से पाट बाजौट पटिया निसरणी या ऊखल को लाकर और उसे ऊंचा करके ऊपर चढ़े और चढते हुए वहाँ से फिसल जाय या गिर पडे तो उसके हाथ, पांव, बाहु (भुजाएं) जांघ, उदर मस्तक या शरीर का कोई भी अंग भंग हो जायगा या गिरने से प्राण, भूत, जीव सत्त्वादि का हनन होगा, उन्हें त्रास उत्पन्न होगा, उनके अंगोपांगों का छेदन भेदन होगा, उन्हें परिताप होगा, कष्ट होगा अथवा वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन करेंगे। अतः ऐसे ऊँचे स्थानों से लाकर दिये जाने वाले उस अशनादि आहार को प्राप्त होते हुए भी साधु ग्रहण न करे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, कोट्ठियाओ वा कोलेजाओ वा असंजए भिक्खुपडियाए उक्कुज्जिय अवउजिय ओहरिय आहट्ट दलइज्जा, तहप्पगारं असणं वा पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, लाभे संते णो पडिगाहिजा॥ ३७॥ __ कठिन शब्दार्थ - कोट्ठियाओ - कोठी से, कोलेजाओ - विशेष प्रकार की कोठी में से, उक्कुजिय - ऊँचा हो कर, अवउज्जिय - नीचे झुक कर, ओहरिय - तिरछा होकर।
भावार्थ - साधु या साध्वी के निमित्त से गृहस्थ कोठी से या विशेष प्रकार की कोठी में से ऊंचा-नीचा होकर या आड़ा टेढा होकर अशनादिक आहार लाकर दे तो साधु या साध्वी इस तरह प्राप्त होते हुए आहार को भी ग्रहण न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट होता है कि जिससे आत्म विराधना, संयम विराधना, गृहस्थ की विराधना एवं जीवों की विराधना हो या गृहस्थ को किसी तरह का कष्ट होता हो तो ऐसे स्थान पर स्थित पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, मट्टिओलित्तं तहप्पगारं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, जाव लाभे संते णो पडिगाहिज्जा। केवली बूया-आयाणमेयं। असंजए
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