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________________ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •••rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अगणिणिक्खत्तं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा॥ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥३६॥ ॥छट्ठो उद्देसो समत्तो॥ .. कठिन शब्दार्थ - अगणिणिक्खत्तं - अग्नि पर रखा हुआ, उस्सिंचमाणे - निकालता हुआ, णिस्सिंचमाणे - डालता हुआ, आमजमाणे - साफ करता हुआ, हाथ आदि से पौंछता हुआ, पमजमाणे- विशेष रूप से साफ करता हुआ, ओयारेमाणे - उतारता हुआ, उव्वत्तमाणे - बर्तन को आड़ा टेढ़ा करता हुआ, अगणिजीवे - अग्नि काय के जीवों की, हिंसिजा - हिंसा होती है। भावार्थ - भिक्षार्थ गया हुआं साधु साध्वी यह जाने कि अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है तो ऐसे आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। क्योंकि केवली भगवान् ने इसको कर्मबंध का कारण कहा है। असंयमी गृहस्थ साधु के निमित्त से अग्नि पर पडे हुए आहार में से कुछ आहार निकालता हो, डालता हो, पात्रादि को साफ करता हो हाथ से पौंछता हो, विशेष रूप से साफ करता हो, पात्र को अग्नि से नीचा उतारता हो या आडा-टेढा करता हो तो ऐसी क्रियाओं से अग्नि काय के जीवों की हिंसा होती है। अतः संयमी मुनियों की यह प्रतिज्ञा है, यही हेतु है, यही कारण है और यह उपदेश है कि अग्नि पर रक्खे हुए अशनादि आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे। यही संयमी निर्ग्रन्थों का पवित्र आचार है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आहार ग्रहण करते समय अग्निकायिक जीवों की किस प्रकार यतना करनी चाहिये, इसका उल्लेख किया गया है। अग्निकाय के जीवों का आरंभ करके दिया जाने वाला आहार अप्रासुक और अनेषणीय होने के कारण साधु ग्रहण नहीं करे। ॥ प्रथम अध्ययन का छठा उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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