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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
जाने वाला आहार अप्रासुक होने के कारण साधु साध्वी ग्रहण न करे । इसी प्रकार सचित्त रज, मिट्टी, खार आदि से हाथ या पात्र भरे हों तो भी उन हाथों से या पात्र से साधु आहार ग्रहण न करे। यदि किसी गृहस्थ ने सचित्त जल से हाथ या पात्र नहीं धोए हैं और उसके हाथ या पात्र गीले भी नहीं है या अन्य सचित्त पदार्थों से संस्पृष्ट नहीं है तो ऐसे प्रासुक एवं एषणीय आहार को साधु ग्रहण कर सकता है।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं वा असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव ससंताणाए कुट्टिसुवा, कुट्टंति वा, कुट्टिस्संति वा, उप्फणिंसु वा, उप्फणंति वा, उप्फणिस्संति वा तहप्पगारं पिहुयं वा चाउलपलंबं वा अफासुयं जाव णो पड़िगाहिज्जा ॥ ३४ ॥ कठिन शब्दार्थ - कुट्टिसु - कूटा है, उम्फणिंसु - हवा में उफना है, उप्फ उफनते हैं, उप्फणिस्संति - उफनेंगे।
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भावार्थ - साधु या साध्वी ऐसा जाने कि असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त से पौहा मुरमुरा, पहुंक और चावलों के दानों आदि को सचित्त या बीज वाली, वनस्पति वाली, कीडी, मकोडी, ओस वाली सचित्त जल या मिट्टी वाली सूक्ष्म जीव जंतु वाली, शिला पर कूटा है, कूट रहा है या कूटेगा अथवा भूसे को पृथक् करने के लिए हवा में उफना है, उफन रहा है या उफनेगा तो साधु ऐसे चावल पोहे आदि को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि सचित्त अनाज एवं वनस्पति आदि तो साधु को किसी भी स्थिति में ग्रहण नहीं करनी चाहिये चाहे वह सचित्त शिला पर कूटपीस कर या वायु में झटक कर दी जाय या कूटने झटकने की क्रिया किए बिना ही दी जाए। इसके अलावा यदि अचित्त अन्न के दाने, वनस्पति या बीज सचित्त शिला पर कूटपीस कर या वायु में झटक कर दिए जाएं तो भी साधु ग्रहण नहीं करे ।
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सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा- बिलं वा लोणं, उब्भियं वा लोणं, असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संताणाए भिंदिंसु वा भिंदंति वा भिंदिस्संति वा रुचिंसु वा रुचंति वा रुचिस्संति वा बिलं वा लोणं, उब्भियं वा लोणं अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा ॥ ३५ ॥
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