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अध्ययन १ उद्देशक ६
या उत्तम-उत्तम भोजन स्वयं नहीं खाता हुआ गृद्धि, मूर्छा और आसक्ति भाव का त्याग करता हुआ समभाव से, सामान्य रूप से खावे और पीवे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्वपंविटुं पेहाए णो ते उवाइकम्म पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा एगंतमवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिट्ठिज्जा। अह पुण एवं जाणिज्जा-पडिसेहिए वा दिण्णे वा तओ तंमि णियट्टिए संजयामेव पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा॥ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥३०॥
॥पंचमो उद्देसो समत्तो ।। कठिन शब्दार्थ - उवाइकम्म - अतिक्रम (उल्लंघन) करके, लांघ करके, ओभासिज्जयाचना करे, पडिसेहिए - प्रतिषेध कर दिया हो, आहार आदि दिये बिना घर से निकाल दिया हो पियट्टिए - लौट जाने के बाद।
भावार्थ - साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रवेश करते हुए, अपने से पूर्व प्रविष्ट श्रमण, ब्राह्मण, भिखारी या अतिथि को खड़ा देखकर उन्हें लांघकर (उल्लंघन कर) घर में प्रवेश न करे और न ही दाता से आहारादि की याचना करे किन्तु गमनागमन रहित एकान्त स्थान में जाकर खड़ा हो जाय। जब वह यह जान ले कि गृहस्थ ने भिक्षा देकर या बिना दिये ही उनको घर से निकाल दिया है तो उनके निकल जाने पर साधु साध्वी यतनापूर्वक उस घर में प्रवेश कर सकता है और आहारादि की याचना कर सकता है। यही संयमशील साधु साध्वियों का समग्र आचार है। ऐसा मैं कहता हूं।
।। प्रथम अध्ययन का पांचवां उद्देशक समाप्त॥
प्रथम अध्ययन का छठा उद्देशक से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा-रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे सण्णिवइए पेहाए तं जहा-कुक्कुडजाइयं वा, सूयरजाइयं वा,
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