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अध्ययन १ उद्देशक ५
अणुण्णविय पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तओ संजयामेव अवंगुणिज्ज वा पविसिज्ज वा क्खिमिज्ज वा ॥ २८ ॥
कठिन शब्दार्थ - दुवारबाहं - द्वार भाग को, कंटगबुंदियाए - कांटों की डालियों से, परिपिहियं - ढका हुआ, उग्गहं - आज्ञा, अणणुण्णविय - अयाचित - बिना आज्ञा मांगे, अपडिलेहिय - बिना देखे, अपमज्जिय- बिना पूंजे, णो अवंगुणिज्ज - उसे उघाडे (खोले) नहीं ।
भावार्थ साधु या साध्वी गृहस्थ के द्वार को कांटों की डालियों से ढका हुआ देखकर गृहस्थ की आज्ञा लिये बिना, देखे बिना, प्रतिलेखन प्रमार्जन किये बिना उसे न खोले और प्रवेश करे और न ही निकले। पहले गृहस्वामी की आज्ञा लेवे, प्रतिलेखन प्रमार्जन करके यतना पूर्वक खोले, प्रवेश करे अथवा निकले।
विवेचन - गृहस्थ. के बन्द द्वार को उसकी आज्ञा के बिना खोल कर अंदर जाने से कई दोष लगने की संभावना रहती है अतः साधु को घर के व्यक्ति की आज्ञा लिए बिना उसके घर के दरवाजे को खोल कर अन्दर नहीं जाना चाहिए और न निकलना चाहिए ।
उपर्युक्त सूत्र में कांटे वाले दरवाजे का वर्णन किया गया है। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ५ उद्देशक प्रथम की अट्ठारहवीं गाथा में अन्य भी किसी भी प्रकार के द्वारों (चूलिया वाले एवं जीव विराधना वाले द्वारों को छोड़ कर ) को मालिक की आज्ञा लेकर खोलना कल्पनीय बताया है।
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से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्वपविट्टं पेहाए णो तेसिं संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिजा, केवली बूया आयाणमेयं ॥
कठिन शब्दार्थ - गामपिंडोलगं - ग्राम के याचक को, संलोए - जहाँ दृष्टि पडती हो, सपडिदुवारे बिलकुल ठीक सामने ।
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भावार्थ - साधु या साध्वी भिक्षार्थ जाते हुए गृहस्थ के घर पर भिक्षु, ब्राह्मण, याचक या अतिथि को पहले से ही प्रवेश किया हुआ देखकर उनके सामने अथवा निर्गम द्वार पर खड़ा नहीं रहे क्योंकि इस प्रकार खड़े रहने को केवली भगवान् ने कर्म बंध का कारण कहा है।
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