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अध्ययन १ उद्देशक ५
भावार्थ - पूर्वोक्त सीधे मार्ग से जाते हुए साधु कदाचित् फिसल जाय या गिर जाय जिससे उसका शरीर मल-मूत्र, श्लेष्म, नाक के मल, वमन, पित्त राध शुक्र या रुधिर से लिप्त हो जाय तो साधु अपने शरीर को सचित्त मिट्टी से गीली मिट्टी से, बारीक कणों वाली मिट्टी से, सचित्त पत्थर या मिट्टी के ढेले से, अथवा सूक्ष्म जीव जंतुओं से युक्त लकड़ी आदि से शरीर को घिसे नहीं, मसले नहीं, पौंछे नहीं, साफ करे नहीं, कुरेदे नहीं, लेप रहित नहीं करे, धूप आदि से सुखावे नहीं, किन्तु वह साधु पहले सचित्त रज आदि से रहित घास पत्ते लकड़ी या कंकरादि की याचना करे। याचना करके एकान्त स्थान में जाकर
निर्जीव भूमि की प्रतिलेखना प्रमार्जना करके उस शरीर को स्वच्छ करे ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु विषम मार्ग का त्याग कर सममार्ग में यत्नापूर्वक गमन करे। यदि विवेक रखते हुए भी उसका पैर फिसल जाय और वह गिर पडे तो उसे अशुचि. से लिपटे हुए अंगोपांगों को सचित्त मिट्टी आदि से साफ नहीं कर अचित्त काष्ठ कंकर की याचना करके एकान्त में चले जाना चाहिये और वहाँ अचित्त भूमि को देख कर जीव जंतु रहित अचित्त काष्ठ आदि के टुकड़े एवं अचित्तं मिट्टी आदि से अशुचि को साफ करके फिर अपने शरीर को धूप में सुखा कर शुद्ध करना चाहिये ।
मूल पाठ में 'अणंतरहियाए' शब्द दिया है इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है
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'अनंतर् + हिता' (अनन्तर्हिता) जिसकी चेतना अन्तर्हित न हो- तिरोहित न हो अर्थात्
जीव सहित- सचित्त। अनन्त+रहिता अर्थात् अनन्त निगोद भाव से रहित । क्योंकि पृथ्वीकाय में असंख्यात जीव होते हैं अनन्त नहीं। इसलिए इसका अभिप्राय यह हुआ कि अनन्त जीवों रहित अर्थात् असंख्यात जीवों वाली ।
भिक्खू व भिक्खुणी वा जाव पविट्ठे समाणे से जं पुण जाणिज्जा गोणं वियालं पडिपहे पेहाए, महिसं वियालं पडिपहे पेहाए, एवं मणुस्सं आसं हत्थिं सीहं वग्घं विगं दीवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं विरालं सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचिल्लडयं वियालं पडिपहे पेहाए सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमिज्जा णो उज्जुयं गच्छिज्जा ॥
कठिन शब्दार्थ - गोणं- बैल, वियालं मार्ग में, आसं घोड़ा (अश्व), हत्थिं
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मदोन्मत्त, महिसं भैंसे को, पडिपहे हाथी को, सीहं
सिंह को, वग्धं बाघ को,
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