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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
वहाँ नहीं जाना चाहिये । यदि कोई ग्लान प्रायोग्य द्रव्य अन्यत्र नहीं मिल रहा हो, वहाँ पर हो तो अपवाद विधि से उन अभक्ष्य वस्तुओं को छोड़कर अन्य ग्लान प्रायोग्य द्रव्य लाने की आगमकारों ने विधि बतलाई है। भोज पूर्ण हो जाने के बाद लोगों एवं भिक्षाचरों का आना जाना कम हो जाने पर तो साधु प्रायोग्य वस्तु उत्सर्ग विधि से भी उन कुलों से लाई जा सकती है। यहाँ पर प्रयुक्त "मंसाइयं......" आदि शब्दों का मांसपरक अर्थ ही करते हैं, वनस्पतिपरक अर्थ तो इसी अध्ययन के उद्देशक दशवें में आये हुए शब्दों 'बहुअट्ठयं मंसं, मच्छं वा बहुकंटयं' का करते हैं । ( बहुत गुठलियों वाला फल का गिर भाग, बहुत कांटों वाली वनस्पति - अन्ननास आदि फल) आचार की अनभिज्ञता के कारण चाहे किसी को यह उपर्युक्त ‘मांसपरक' अर्थ अटपटा भी लग सकता है परन्तु 'आगमकालीन युग से ऐसे ही अर्थ की परम्परा चली आ रही है।' ऐसा समझते हैं।
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सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविसिउकामे से जं पुण जाणिज्जा खीरिणियाओ गावीओ खीरिज्जमाणीओ पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवसंखडिज्जमाणं पेहाए पुरा अप्पजूहिए सेवं णच्चा णो गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा । से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा अणावायमसंलोए चिट्ठिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जाखीरिणियाओ गावीओ खीरियाओ पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए पुराए जूहिए सेवं णच्चा तओ संजयामेव गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा णिक्खमिज्ज वा ॥ २३ ॥
कठिन शब्दार्थ - खीरिणियाओ - दूधारू, गावीओ- गायों को, खीरिज्जमाणीओदूही जाती हुई, उवसंखडिज्जमाणं - बनते हुए को, पकते हुए को, पुरा अप्पजूहिए अन्य किसी को नहीं दिया गया हो, एगंतं एकान्त स्थान में, अवक्कमिज्जा - जावे, अणावायं लोगों का आवागमन न हो, अंसलोए किसी की दृष्टि न पड़ती हो, चिट्टिज्जा - खड़ा रहे, ठहर जाय, उवक्खडियं तैयार हो चुका है, पुराए जूहिए - दूसरों
को दिया जा चुका है।
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भावार्थ - साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश की कामना रखते हुए ऐसा जान ले कि दूधारू गायों का दोहन कर रहे हैं, अशनादिक आहार पक रहा है अभी तक उसमें से
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