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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध +0000000000000000000000000000000000000000000000000000000+
प्रथम अध्ययन का तृतीय उद्देशक प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में संखडी आदि से संबंधित दोषों का वर्णन किया गया है। इस तीसरे उद्देशक में अन्य दोषों का विवेचन करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं - -
से एगया अण्णयरं संखडिं आसित्ता पिबित्ता छड्डिज वा वमिज वा, भुत्ते वा से णो सम्मं परिणमिजा, अण्णयरे वा से दुक्खे रोगायंके समुप्पजिजा, . केवली बूया आयाणमेयं ॥१४॥ ___ कठिन शब्दार्थ - आसित्ता - खाकर, पिबित्ता - पीकर, छड्डिज - छर्दी (दस्त लगना), वमिज- वमन करना, सम्मं - भली प्रकार से, णो - न, परिणमिजा - परिणमन हो, अण्णयरे - अन्य विशूचिकादि से, दुक्खे - दुःख, रोगायंके - रोग शूलादि आतंक, समुप्पज्जिज्जा - उत्पन्न हो जाए। .
भावार्थ - संखडी में गया हुआ साधु कदाचित् सरस आहार अधिक मात्रा में करे या . दूध आदि पीये तो उसे दस्त या वमन हो सकते हैं अथवा खाये हुए आहार का सम्यक्तया पाचन नहीं होने से विशूचिका ज्वर शूलादिक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अतः केवली भगवान् ने संखडी में जाने और संखडी भोजन को ग्रहण करने के कार्य को कर्म बंधन का कारण कहा है।
विवेचन - पूर्व उद्देशक में बताया गया है कि संखडी में जाने से साधु को अनेक दोष लगने की संभावना रहती है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि संखडी में सरस एवं प्रकाम भोजन बनता है। स्वादिष्ट पदार्थों के कारण वे अधिक खाए जा सकते हैं। जिससे साधु को वमन हो सकता है और पाचन नहीं होने के कारण विशूचिका ज्वर या शूल आदि अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं अतः ऐसे स्थानों में आहार आदि के लिये साधु को नहीं जाना चाहिए।
इह खलु भिक्खू गाहावइहिं गाहावइणीहिं वा, परिवायएहिं वा, परिवाइयाहिं वा एगजं सद्धिं सुंडं पाउं भो वइमिस्सं हुरत्था वा उवस्सयं पडिलेहमाणो णो लभिज्जा तमेव उवस्सयं संम्मिस्सीभावमावज्जिजा, अण्णमणे वा से मत्ते विप्परियासियभूए इत्थिविग्गहे वा किलीवे वा तं भिक्खू उवसंकमित्तु बूया
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