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________________ अध्ययन १ उद्देशक २ २५ .00000000000000000000000000000000000000000000000000...... विवेचन - संखडी (जीमनवार) में जाने से निम्नोक्त दोष लगने की सम्भावना रहती हैं रसनेन्द्रिय की लोलुपता, स्वाद की लोलुपता वश अत्यधिक आहार लाने का लोभ स्वादिष्ट भोजन अतिमात्रा में करने से स्वास्थ्य हानि, प्रमाद वृद्धि, स्वाध्याय आदि का क्रम भंग, जनता की भीड में धक्का मुक्की, स्त्री संघटा (स्पर्श) मुनिवेश एवं प्रवचन की अवहीलना, जनता में जैन साधु के प्रति अश्रद्धा भाव बढ़ने की सम्भावना तथा आधाकर्म आदि दोष लगने की सम्भावना रहती है। इसलिए जीमन आदि में जाने का निषेध किया है। यहाँ तक कि जिस दिशा में जीमनवार होवे उस दिशा में जावे ही नहीं। जत्थेव सा संखडी सिया, तं जहा-गामंसि वा, णगरंसि वा, खेडंसि वा, कब्बडंसि वा मडबंसि वा, पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा, णिगमंसि वा, आसमंसि वा, संणिवेसंसि वा, जाव रायहाणिंसि वा संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारिज्जा गमणाए। केवली बूया आयाणमेयं॥ ___ कठिन शब्दार्थ - जत्थ - जहाँ पर, एव - ही, सिया - कदाचित्, गामंसि - ग्राम में, णगरंसि - नगर में, खेडंसि - खेट में, कब्बडंसि - कर्बट में, मडंबंसि - मडंब में, पट्टणंसि - पट्टन (पतन) में, आगरंसि - आकर में, दोणमुहंसि - द्रोण मुख में, णिगमंसिनिगम-व्यापार स्थल में, आसमंसि - आश्रम में, संणिवेसंसि - सन्निवेश में, रायहाणिंसि - राजधानी में, केवली - केवली भगवान् ने, बूया - कहा है, आयाणमेयं - कर्म बंधन का कारण (हेतु)। भावार्थ - जिस ग्राम में, नगर में, खेट में, कर्बट में, मडंब में, पतन में, आकर में, द्रोणमुख में, व्यापारिक स्थलों में, आश्रम में (तीर्थ स्थल में) सन्निवेश में यावत् राजधानी में जीमनवार (प्रीतिभोज) हो तो संखडी में स्वादिष्ट भोजन लाने की प्रतिज्ञा से जाने के लिए मन में भी इच्छा न करे। केवली भगवान् ने संखडी (प्रीतिभोज) में जाने से कर्मों का बंध होना कहा है। ‘विवेचन - 'आयाणमेयं' (आदानमेतत्) के स्थान पर 'आययणमेयं' (आयतनमेतत्) ऐसा पाठ भी मिलता है। जिसका अर्थ है - यह कार्य दोषों का स्थान हैं। भावार्थ में दिये गये ग्राम आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार हैं - १. ग्राम - ग्रामीण धर्मों से युक्त तथा अठारह प्रकार के कर (महसूल) युक्त। २. नगर - अठारह प्रकार कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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