________________
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
किसी भी प्रकार के भय से भयभीत नहीं होने वाला और परीषह उपसर्गों से नहीं घबराने वाला साधु आरम्भ तथा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का सर्वथा परित्याग कर दे । पर्वत की उपमा तथा परीषहोपसर्ग सहन प्रेरणा तहागयं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विण्णू चरंतमेसणं । तुदंति वायाहिं अभिद्दवं णरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं ॥ २ ॥
कठिन शब्दार्थ - तहागयं तथागत, अणंतसंजयं - अनंत संयत - एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा में यत्नशील, अणेलिसं अनुपम संयमी, चरंतं गवैषणा करने वाला, एसणं - शुद्ध आहार की, तुदंति - व्यथित करते हैं, वायाहिं - वचनों से, सरेहिं शरो-बाणों से, संगामगयंसंग्राम में गये हुए, कुंजरं- हाथी को ।
३५८
भावार्थ उस तथाभूत एकेन्द्रिय आदि जीवों के प्रति सम्यक् यतनावान्, अनुपम संयमी, विद्वान् और आगमानुसार शुद्ध आहार आदि की एषणा करने वाले भिक्षु को देख कर कोई अनार्य मनुष्य उसे असभ्य वचन कहता है तथा पत्थर आदि से प्रहार कर उसी तरह व्यथित कर देते हैं जैसे संग्राम में वीर योद्धा शत्रु के हाथी पर बाणों की वर्षा करते हैं । विवेचन - मूल में 'तहागयं' शब्द दिया है। जिसकी संस्कृत छाया ' तथागत' होती है। तथागत शब्द का अर्थ यह किया गया है - अनित्यता आदि भावनाओं से गृह बन्धन से मुक्त। दूसरा अर्थ यह किया गया है कि जिस मार्ग से तीर्थङ्कर भगवान् तथा गणधर आदि गये हैं उसी मार्ग से जो गमन करता है वह तथागत कहलाता है। इस गाथा में साधु साध्वी की सहिष्णुता और समभाव वृत्ति का उल्लेख किया गया है।
तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए, ससद्दफासा फरुसा उईरिया ।
-
-
Jain Education International
तितिक्खए णाणी अट्ठचेयसा, गिरिव्व वाएण ण संपवेयए ॥ ३ ॥
कठिन शब्दार्थ - हीलिए हीलित, ससद्दफासा सशब्द स्पर्श, उईरिया - उदीरित, तितिक्खए- सहन करे, अदुट्ठचेयसा- अदुष्ट- कलुषता रहित मन वाला, वाएण- वायु से, संपवेयए कम्पितं होता है ।
भावार्थ - अनार्य पुरुषों के तुल्य और असभ्यजनों द्वारा आक्रोश आदि शब्दों से हीलना किया जाने पर तथा शीत आदि स्पर्शो से पीडित किया जाने पर ज्ञानवान् मुनि उन परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक प्रसन्न चित्त से सहन करे । जिस प्रकार वायु के प्रबल
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org