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चतुर्थ चूला विमुक्ति नामक सोलहवां अध्ययन पन्द्रहवें अध्ययन में पांच महाव्रत और पच्चीस भावनाओं का उल्लेख करने के बाद सूत्रकार इस सोलहवें अध्ययन में विमुक्ति-मोक्ष के साधन रूप उपायों का वर्णन करते हैं। महाव्रतों की साधना कर्मों से मुक्त होने के लिए ही है अतः इस अध्ययन में कर्म मुक्ति के लिए निर्जरा के साधनों का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। निर्जरा के साधनों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं -
अनित्य भावना बोध अणिच्चमावासमुवेंति जंतुणो, पलोयए सुच्चमिणं अणुत्तरं। विउसिरे विण्णू अगारबंधणं, अभीरू आरंभपरिग्गहं चए॥१॥
कठिन शब्दार्थ - अणिच्चं - अनित्य, आवासं - आवास को, उवेंति - प्राप्त करते * हैं, पलोयए- पर्यालोचन करे, विउसिरे - त्याग कर दे, विष्णू - विज्ञ-विद्वान्, अगारबंधणंअगार (गृहस्थ) के बंधनों को, अभीरू - भय रहित-निर्भीक, चए - छोड़ दे।
भावार्थ - जिन शरीर आदि में आत्माएँ आवास प्राप्त करती है अर्थात् संसार के समस्त प्राणी जिन योनियों में जन्म लेते हैं वे सब स्थान अनित्य हैं। सर्व श्रेष्ठ जिन प्रवचन में कथित यह वचन सुन कर उस पर अंतर की गहराई से पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विज्ञ (विद्वान्) पुरुष अगारिक-घर बार के बंधनों का त्याग कर दे और आरंभ परिग्रह को छोड़ दे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में संसार की अनित्यता का बोध कराते हुए विविध बंधनों और आरंभ परिग्रह का त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। जो सभी भयों से मुक्त विवेकी पुरुष है वह सांसारिक बंधनों के यथार्थ स्वरूप को समझ कर उनका त्याग कर देता है। ___ यह सारा ही संसार अनित्य है। तात्पर्य यह है कि - चारों गतियों में जीव, जिन-जिन योनियों में उत्पन्न होते हैं वे सब अनित्य हैं। देवों की जैसी लम्बी स्थिति है वैसी मनुष्यों की नहीं है। धर्माचरण की दृष्टि से मनुष्य आयु एक करोड़ पूर्व से भी कम है। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, घर आदि के पाश बन्धनों का सर्वथा त्याग कर दे।
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