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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ...................................................... उग्गहणसीलए सिया, केवली बूया, णिग्गंथे णं उग्गहंसि अणुग्गहियंसि एतावताव अणुग्गहणसीले अदिण्णं उगिण्हिज्जा, णिग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि एतावताव उग्महणसीलए सियत्ति तच्चा भावणा॥३॥
अहावरा चउत्था भावणा, णिग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं अभिक्खणं उग्गहणसीलए सिया, केवली बूया, णिग्गंथे णं उग्गहसि उग्गहियंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अणोग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हिज्जा, णिग्गंथे उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं अभिक्खणं उग्गहणसीलए सिय त्ति चउत्था भावणा॥४॥ ___ अहावरा पंचमा भावणा, अणुवीइ मिउग्गहजाई से णिग्गंथे, साहम्मिएसु णो अणणुवीइ मिउग्गहं जाई, केवली बूया, अणणुवीइ मिउग्गहजाई से णिग्गंथे साहम्मिएसु अदिण्णं उगिण्हिज्जा, अणुवीइ मिउग्गहजाई से णिग्गंथे साहम्मिएसु णो अणणुवीइ मिउग्गहजाई इइ पंचमा भावणा॥५॥
कठिन शब्दार्थ - अणुवीइ - विचार कर, मिउग्गहं - मित अवग्रह की, जाई - याची-याचना करने वाला, उग्गहणसीलए - अवग्रहण शील, साहम्मिएसु - साधर्मिकों में।
भावार्थ - उस तीसरे महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं। उन पांच भावनाओं में प्रथम भावना इस प्रकार है - जो साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ है, न कि बिना विचार किये मितावग्रह की याचना करने वाला। केवली भगवान् कहते हैं कि जो बिना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ अदत्त ग्रहण करता है। अतः विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करने वाला साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है न कि बिना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करने वाला। यह प्रथम भावना है।
इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है - गुरुजनों की आज्ञा ले कर आहार पानी आदि करने वाला निर्ग्रन्थ होता है न कि बिना आज्ञा के आहार पानी करने वाला। केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की आज्ञा प्राप्त किये बिना आहार पानी आदि करता है वह अदत्तादान का सेवन करता है।अतः आज्ञा पूर्वक आहार पानी करने वाला ही निर्ग्रन्थ
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