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अध्ययन १५
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कठिन शब्दार्थ - अणुवीइभासी - अनुवीचि भाषी-विचार पूर्वक भाषण करने वाला, कोहप्पत्ते- क्रोध को प्राप्त हुआ, भयभीरुए - भय भीरु अर्थात् डरपोक, अणणुवीइभासीअननुवीचि-बिना विचारे बोलने वाला, कोहत्तं - क्रोधत्व-क्रोधपना, कोहणे - क्रोधनःक्रोधी, भयपत्ते - भयप्राप्त-भयभीत।
भावार्थ - उस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं। उन पांच भावनाओं में प्रथम भावना है- जो विचार पूर्वक भाषण करता है वह निर्ग्रन्थ है। बिना विचारे भाषण करने वाला निर्ग्रन्थ नहीं है। केवली भगवान् कहते हैं कि बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्या भाषण का दोष लगता है अतः विचार पूर्वक बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। बिना विचार पूर्वक बोलने वाला नहीं। यह प्रथम भावना है। . दूसरी भावना इस प्रकार है - जो साधक क्रोध का कटुफल जान कर उसका त्याग करता है वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिये। केवली भगवान् कहते हैं कि-क्रोध के आवेश में व्यक्ति असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अतः जो साधक क्रोध का अनिष्ट स्वरूप जान कर उसका परित्याग कर देता है वही निर्ग्रन्थ कहला सकता है. क्रोधी नहीं। यह दूसरी भावना है।
इसके पश्चात् तीसरी भावना यह है - जो साधक लोभ का दुष्परिणाम जान कर उसका त्याग कर देता है वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधु लोभी नहीं होना चाहिए। केवली भगवान् कहते हैं कि लोभ के वश होकर व्यक्ति असत्य बोल देता है। अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट स्वरूप जान कर उसका परित्याग कर देता है वही निर्ग्रन्थ है, लोभाविष्ट नहीं। यह तीसरी भावना है।
इसके पश्चात् चौथी भावना यह है - जो साधक भय का दुष्परिणाम जान कर उसका त्याग करता है वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधु भयभीत न हो। केवली भगवान् का कथन है कि भय प्राप्त भीरू व्यक्ति भयाविष्ट हो कर असत्य बोल देता है अतः जो साधक भय का अनिष्ट स्वरूप जान कर उसका त्याग कर देता है वही निर्ग्रन्थ है न कि भयभीत। यह चौथी भावना है। .: तदनन्तर पांचवीं भावना यह है - जो साधक हास्य के अनिष्ट परिणाम को जान कर उसका त्याग करता है वह निर्ग्रन्थ है। अतः साधु को हंसी मजाक नहीं करना चाहिये। केवली भगवान् का कथन है कि हास्य वश व्यक्ति असत्य बोल देता है अतः जो साधक
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