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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रावक श्राविका थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक पर्याय का पालन करके छह जीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिंदा, आत्मंगर्दा एवं पापों का प्रतिक्रमण करके उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार करके कुश के संस्तारक पर आरूढ होकर भक्त प्रत्याख्यान नामक संथारा स्वीकार किया। चारों प्रकार के आहार का त्याग करके अंतिम मारणांतिक संलेखना स्वीकार की। काल के समय काल करके उस शरीर को छोड़ कर अच्युत कल्प नामक बारहवें देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए। तदनंतर देव संबंधी आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में चरम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत्त होंगे और सभी दुःखों का अन्त करेंगे।
- विवेचन - भगवान् महावीर स्वामी के माता-पिता के लिए 'पापित्य' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'अपत्य' शब्द शिष्य एवं संतान दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के माता-पिता जैन श्रावक थे और भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के उपासक थे। सिद्धार्थ राजा और त्रिशला महारानी ने श्रावक धर्म का पालन करते हुए अंत में संलेखना संथारा किया और काल करके बारहवें अच्युत नामक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए। जहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जायेंगे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे णाए णायपुत्ते णायकुलणिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहंसि ति कट्ट अगारमझे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा बलं, चिच्चा वाहणं, चिच्चा धणधण्ण- कणग-रयण- संतसार सावइग्जं विच्छड्डत्ता, विगोवित्ता, विस्साणित्ता, दायारेसु दाणं दाइत्ता, परिभाइत्ता, संवच्छरं दाणं दलइत्ता, जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे, मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमी पक्खेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अभिणिक्खमणाभिप्पाए यावि होत्था॥
कठिन शब्दार्थ - णायकुलणिव्यत्ते - ज्ञातकुल निर्वृत्त, विदेहदिण्णे - विदेह दिन्न या विदेहदत्त, विदेहजच्चे - विदेहाचं, विदेहसूमाले - विदेहसुकुमाल, देवलोग - देवलोक
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