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__ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
नानारससमायुक्तं स्थापयन्ति देवाः मनोज्ञं मनोऽनुकूलम् एव अतिक्रान्त बालभावा: तु अग्निपक्वमेव गृह्णन्ति।
अर्थ - जब भगवान् ऋषभदेव कुछ कम एक वर्ष के हो गये तब देवलोक से शक्रेन्द्र आया और वंश की स्थापना की और देवों ने ऋषभदेव के अङ्गठे में मनोज्ञ आहार का संचार कर दिया।
इस गाथा की टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि बचपन में सब तीर्थङ्कर माता का स्तन पान नहीं करते हैं किन्तु आहार की अभिलाषा होने पर अपनी अङ्गुली (अंगुठा) को ही मुख में डाल लेते हैं। अर्थात् अपना अंगुठा चूस लेते हैं जिससे नाना प्रकार के मनोज्ञं रसों से संयुक्त आहार की प्राप्ति हो जाती है। जिससे बाल तीर्थङ्कर तृप्त हो जाते हैं क्योंकि देव उनके अंगुठे में मनोज्ञ और मन के अनुकूल रस प्रक्षिप्त कर देते हैं। जब उनका बचपन बीत जाता है तब वे अग्निपक्व आहार ही करते हैं। - प्रत्येक व्यक्ति के सामान्यतः प्रकृति के नियमानुसार एक हाथ में पांच अंगुलियाँ होती है उनके क्रमशः नाम इस प्रकार हैं - १. अंगुष्ठ २. तर्जनी ३. मध्यमा ४. अनामिका ५. कनिष्ठा (सबसे छोटी)। इस अपेक्षा से यहाँ पर गाथा में और उसकी टीका में अंगुठे के लिये अङ्गली शब्द का प्रयोग किया गया है। बोल चाल की भाषा में भी ऐसा ही बोलते हैं कि "हाथ की पांचों अङ्गलियाँ बराबर नहीं होती हैं" इस अपेक्षा से अंगुठा भी अङ्गली ही है। आजकल भी कई बालक बालिकाएँ बचपन में अपना अंगुठा चूसते हुए देखे जाते हैं।
तओ णं समणे भगवं महावीरे विण्णाय परिणयए विणियत्तबालभावे अप्पुस्सुयाइं (अणुस्सुयाई) उरालाई माणुस्सगाई पंचलक्खणाई कामभोगाई सह-फरिस-रसरूवगंधाइं परियारेमाणे एवं च णं विहरइ॥-१७६॥
कठिन शब्दार्थ - विण्णाय परिणयए - विज्ञान परिणत-विज्ञान को प्राप्त हुए, विणियत्त बालभावे- बाल भाव को त्याग कर, अप्पुस्सुयाई - उत्सुकता से रहित, परियारेमाणे - उपभोग करते हुए।
भावार्थ - उसके पश्चात् ज्ञान विज्ञान संपन्न श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए और मनुष्य संबंधी उदार शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श युक्त पांच प्रकार के कामभोगों का उदासीनता पूर्वक उपभोग करते हुए रहने लगे।
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